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________________ इसि-भासियाई एवमेव ते अस्संजता अविरता अप्पडिहता पञ्चपखाता पावकम्मा सकिरिया असंवुत्ता एकंतदंडा एकंवबाला यशुपावं कम्म कलिकलुसं समजिणित्ता इतो चुता दुमातिगामिणो भवति । पहि हारिता आयाणेहि। अर्थ:-इस प्रकार वे असंयत अविरत अप्रतिहत प्रत्याख्यात पाप कर्मशील सक्रिय असंवृत आत्माएँ जो एकान्त की होती हैं और एकान्ततः अशानशील होते है विपुल पाप कर्म के लिए कलुष में डूबता है और यहां से मारने के बाद दुर्गतिगामी होता है। यही आत्मा की सबसे बड़ी पराजय है। अथवा ये आत्माएँ आत्मा की शुद्ध परिणतिओं की अपहारक वृत्तियों से हारित है चुराई हुई है। अर्थात् ये अशुभ वृत्तियों में लीन हैं। गुजराती भाषान्तर: એ પ્રકારે તેઓ સંયમરહિત, અવિરત અપ્રતિહત અપ્રત્યાખ્યાત પાપકર્મશીલ સક્રિય અસંવૃત આત્માઓ પણ જે એકાત નિશ્ચિત દંડવાળા હોય છે અને એકાન્તત; અજ્ઞાની હોય છે. વિપુલ પાપકર્મના કલિ કલબની અંદર રહે છે. અને અહીંથી મરીન દગતિમાં જાય છે. એ જ આત્માને સૌથી મોટો પરાજય છે, અથવા આ પ્રાણીઓ આત્માની શુદ્ધ પરિણામોની અપહારક વૃત્તિઓથી હારિત છે, ચોરાયેલી છે, અર્થાત્ તેઓ અશુભ વૃત્તિઓમાં બી अछ. 'आत्मा गर्भ में पुनः क्यों आता है ? इस प्रश्न के उत्तर में योगन्धरायण इस तथ्य को सामने रख रहे है। जो आत्मवासना से विमुक्त नहीं है वह हिमा आदि पाँचों पाप कर्म करती है, वही उसके सगुणों को अपहरण करने वाले चोर है। वे पाणी दुराचरण में रत रहते हैं और उसके लिए दूसरे को प्रेरित भी करते हैं और उसकी प्रशंसा भी करते है। पाप का हो जाना एक चीज है और पाप का करना दूसरी चीज है। होने और करने में उतना ही अन्तर है जितना कि ट्रस्टीशिप और स्वामित्व में। एक में कर्तव्य निभाना है जब कि दूसरे में आसक्ति हैं। यह आसक्ति ही समस्त पाप परिणतियों की जड़ है। प्रोफेसर शुनिंग अम्बड परिमाजक के प्रश्न के उत्तर में बोलते है कि मनुष्य प्राप्त वस्तुओं से ही आकर्षित होता है। भ कृत्य और वासना आत्मा की स्वतंत्रता का अभाव दिखाते हैं । इस रूप में वे अम्ब को यह सूचित करना चाहते हैं कि केवल व्रत ही; जिनके लिए कि आप गौरव ले रहे हैं वे ही पर्याप्त नहीं है। किन्तु वासना विमुक्ति के लिए आश्रम के आचार शास्त्र का अध्ययन और चिन्तन भी आवश्यक है। सकिरिया जैन परिभाषा में किया वह वृत्ति कहलाती है जिसके द्वारा भात्मा कर्मों का बन्ध करता है। सावध व्यापार किया है। - भगवती सूत्र २० १७.३, १. कायिकी शरीर संभक्ति, अधिकरण की शस्त्र संभावित, प्राद्वेषिकी अर्थात् द्वेष के द्वारा होने वाली परितापिनिकी दूसरों को संत्रस्त करने से आने वाली किया। प्राणातिपातिकी आदि क्रिया के २५ प्रभेद है। ये क्रियाएँ और असंबर है। दंड है। किया से प्रेरित आत्मा दंड और अज्ञान में निरत रहती है। पाप की कलुषितता में निमम रहकर दुर्गति के पथिक होते हैं और यही जीवन की सब से छी पराजय है। दंड भी एक जैन पारिभाषिक शब्द है, आत्मा की वह अशुभ परिणति जिसके द्वारा वह दंडित होता है 'दंड' कहलाता है। उसकी खार्थ और कवाय अन्य प्रवृत्ति दूसरे के लिए दंड प्रयुक्त करती है। किन्तु उसको वह अशुभ ही उसे दंडित करती है। टीका:-पूवमेव ते भसंयता भचिश्ता मप्रतिक्षता प्रत्याख्यातपापकर्मणः क्रियावन्तोऽसंवृता एकांतदेवा एकांतमाला बदुपापं कर्म कलिकलुषं समर्येिताश्युता दुर्गतिगामिनो भवम्येभिारितादानैः। गतार्थः । जे खलु आरिया पावेहिं कस्मेहिं विप्पमुक्का ते खलु गम्भवासाहि णो सजति ते णो सयमेव पाणे अतिवातिति एवं राधेष विपरीतं जाव अकिरिया संवदा, एकतपंडिता, वधगतरागदोसा तिगुत्तिगुत्ता तिदंडोवरता णीसल्ला आयरक्ली वगयचउकसाया, चउविकहविवजिता पंच महाव्यया तिगुत्ता पंचिंदियसंवुडा छजीवनिकायसुटुणिरता, सत्समयविप्पमुक्का, अट्ठमयट्ठाणजदा, णवबंभचेरजुत्ता, दस समाहिट्ठाणपयुत्ता, बहुं पावं कम्म कलिकलुसं खबहत्ता हतो चुया सोग्गतिगामिणो भवति ।
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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