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________________ २२० सास-मासिचाई साधक कषाय के स्वरूप का परिज्ञान करे । जन्म उसकी विघातक शक्ति का ठीक ठीक अबोध होगा तभी आत्मा उसके विनाश के लिए प्रवृत्त होगा। क्याय मेरी स्वभाव-परिणति नहीं है, वह मेरे निज गुणों का विघातक है। इतना निश्चय होने के बाद ही साधक विभाव परिणति को दूर कर सकता है । अत एव वर्तमान सुख के लिये आकुल त्रुद्धि की चंचलता को दूर करना होगा। किसी वस्तु की प्राप्ति और उसके संरक्षण के लिये मनुष्य कोध के हथियार का उपयोग करता है। उसके लिये दो बातों का चिन्तन आवश्यक है। जिस वरतु को पाने के लिये क्रोध किया जाता है वह खद्रव्य है या परद्रष्य ? यह निक्षित है आत्मा के अतिरिर सभी वस्तुएं परगव्य हैं, फिर पर के लिये इतना आक्रोश क्यों ? दूसरी बात कोष के द्वारा किसी वस्तु का संरक्षण हम कर सकें ग्रह भी संभव नहीं है। क्योंकि वसु स्वयं विनाशधर्मी है और अशाश्वत को शाश्वत बनाने की ताकद किसमें है ? अतः साधक ख और पर का भेद विज्ञान करे। यह भेदविज्ञान उसे कषाय-विजय के लिये बहुत बड़ा सहाय्यक होगा। कषाय-विजय के लिये मेदविज्ञान के साथ अन्तनिरीक्षण भी आवश्यक है। क्रोध के उतार के क्षणों में आत्मनिरीक्षण करें । हरएक व्यक्ति दूरारे की मस्ती देखता है। इसीलिये तो उसे कोध आता है यदि उसका आत्म-निरीक्षण जारी रहा तो वह अपनी भूल भी देखेगा और फिर क्रोध का स्थान सहज सुलभ लज्जा ले लेगी। शोधोपशमन के लिये विपथोपरति भी आवश्यक है। क्योंकि विषयों की ओर घूमनेवाला मन जब अपने प्रिय पदार्थों की प्राप्ति में किसी को बाधक पाता है तभी उन्हें दूर करने के लिये क्रोध का आश्रय लेता है। जेसु जायते कोधाती कम्म-बंधा महाभया । से वत्थू सबभावे, सव्वहा परिवज्जए ॥१०॥ अर्थ:-जिन व्यक्तिओं अथवा वस्तुओं में कर्म बन्च के हेतु और महा भयोत्पादक क्रोधादि उत्पन्न होते है साधक उन समस्त वस्तुओं को सर्व भावों से सर्वथा छोड़ दे। गुजराती भाषान्तर: જે માણસમાં અગર પદાર્થોમાં કર્મબંધના કારણે મોટું ભય ઉત્પન્ન કરનાર ક્રોધ જેવા વિકાર પેદા થાય છે; સાધકે ગમે તેમ કરી તેવા પદાર્થોને સદંતર છોડી દેવા જોઈએ. पुदल यद्यपि जड़ है उसमें कषाय भाव नहीं है, फिर भी कषायोत्पादन में चे निमित्त हो सकते हैं । यदि आत्मा में कषायभाव है तो पदार्थ मी कसाय के लिये निमित्त हो सकता है। अतः साधक कषाय के निमित्त से बचता रहे। यद्यपि निमित्तों से बना बाहिरी दवा है, अन्तर की औषधि तो आत्मा में से कयाय की परिणति का क्षय कर देना है। फिर भी जब तक मोह क्षय नहीं हो जाता तब तक कषाय के निमितों से बचते रहना आवश्यक हैं। भगवान महावीर ने कहा है - मेकिलेशकर ठाणं दूरओ परिवाए। -दशवकालिक सूत्र, साधक | कषायोत्पादक बातावरण को दूर से ही छोड़ दे। सत्थं सल्लं विसं जंतं मज वालं दुभासणं । वज्जेतो तं निमिसेणं दोसेणं ण यि लुप्पति ॥ ११ ॥ अर्थ:-शस्त्र, शल्य, विष, अंत्र, मद्य, सर्प और कटुभाषण का वर्जन करने वाला व्यक्ति उस निमिस से आनेवाले दोषों से लिप्त नहीं होता है। गुजराती भाषांतर : હથિયાર, શલ્ય, જહર, યંત્ર, દાસ, સાપ અને ન ગમે તેવી વાતોથી દૂર રહેનાર માણસને તેને કારણે આવનાર કોઈપણ દોષને સંસર્ગ ( જવાબદારી) તે માણસને થતું નથી. पूर्व गाथा में बताया गया है कि साधक कषाय से बचने के लिये उसके निमित्तों से दूर रहे, यहां उन निमितों का निर्देश किया गया है।
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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