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________________ - पम अर्हतर्षि प्रोक्त तेंतालीसवाँ अध्ययन लाभमि जे ण सुमणो अलाभे णेव दुम्मणो। से हु सेट्टे मणुस्साणं देवाणं सयजऊ ॥१॥ जमेण अरहता इसिणा बुइतं । अर्थ-लाभ में जो सुमन ( प्रसन) नहीं है और अलाभ में दुर्भन ( अप्रसन्न ) नहीं है। वहीं मनुष्यों में वैसा ही श्रेष्ठ है जैसा कि देशों में शतक्रतु ( देवेंद्र ) यम अईतर्षि ऐसा बोले। गुजराती भाषान्तरः જે માણસ લાભ થયા પછી સંતુષ્ટ થતા નથી અને હાનિ થયા પછી નારાજ પણ ન થાય તે સાધક દેવોમાં શતક્રતુ (દેવેન્દ્ર) જેમ શ્રેષ્ઠ છે તેમજ તે સાધક માણસોમાં પણ શ્રેષ્ઠ છે એમ થમ અહંતષિએ કીધું. जन सामान्य की मनः स्थिति कुछ इरा दंग की होती है कि इच्छित वस्तु की प्राप्ति होने पर आनंद की अनुभूति करता है और इच्छित वस्तु का अमात्र उसके मन की प्रसन्नता छीन लेता है। किन्तु साधक की मनःस्थिति इससे सर्वथा भिन्न हो। अपने मन पर उसका इतना शासन हो कि प्रिय वस्तु उसके मन को हर्षित न कर सके, उसका वियोग उसकी मुस्कान छीन न सके। लाभ और अलाभ में जिसकी सम स्थिति रहती है वह मानव समाज में महा मानवता प्राप्त करता है। वह समाज में ऐसा शोभता है जैसा कि देवराभा में देवेन्द्र । एवं से सिद्धे बुद्धे । गतार्थः। इति यम अतिर्षिप्रोक्त त्रिचत्वारिंशध्ययन।
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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