SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 307
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सोम अर्हतार्ष प्रोक्त बयालीसवाँ अध्ययन बयालीस, तेंतालिस और चवालीस ये तीनों अध्ययन केवल एक एक गाथा के हैं। संभव है काल के महाप्रवाह में अन्य गाथाएं लुप्त हो चुकी हो और आज ये नामशेष रह गये हों। पर अभी हम यह नहीं कह सकते कि तीनों अध्ययन किस रूपमें थे और प्रत्येक में कितनी गाथाएं थीं। आज तो हमें ऋजुत्र नय वृष्टि को मानते हए इसने मात्र संतोष करना होगा। तीनों अध्ययन में क्रमशः सापद्यवृत्ति का त्याग, समय की उपासना और रागद्वेषविजय पर विचार मिलते हैं। अप्पेण बहुमसेजा जेट्टमज्झिमकण्णसं । णिरवजे ठितस्स तु णो कप्पति पुणरवि साधजं सेवित्तए । सोमेण अरहता इसिणा चुइतं । अर्थः-साधक ज्येष्ठ मध्यम और कनिष्ठ किसी भी पद पर हो वह अ५ से अधिक प्राप्त करने की चेष्टा करे । निरवद्य में स्थित साधक को पुनः सावध सेवन कल्पना नहीं है। सोम अर्हतर्षि इस प्रकार बोले । गुजराती भाषान्तर: સાધક ઉચ્ચ, મધ્યમ અગર કનિશ એમાંથી કોઈ પણ પદ પર હોય તે વિચાર અને જ્ઞાન ક્ષેત્રમાં વધારે આગળ વધી વધુ સફળતા મેળવવાની કોશિશ કરતા રહે; નિરવલ્લમાં રહેલ સાધક સાવસેવનનો વિચાર પણ કરતા નથી, એમ સોમ અતર્ષિ લ્યા. साधक किसी भी रूप में हो। वह चाहे प्राचार्य के रूप में हो, श्रुतधर के रूप में हो या लघु मुनि के रूप में क्यों न हो सदैव उसका एक मात्र प्रयत्न रहे कि वह अल्प से बहुत्व की ओर जाए। ज्ञान की अल्प किरण को विराट रूप दे। विचार के क्षेत्र में वह आगे बढे । मैं और मेरे के क्षुद्र घेरे को तोडकर विराट बने । अपने निकटवती साधको ही नहीं दूरवती साधकों को भी अपना माने । संप्रदायोकी दीवारों को समाप्त कर दूसरी संप्रदाय के मुनियों को स्नेह का माधुर्य प्रदान करे। संघ में सभी मनियों का मनोबल समान नहीं हो सकता । कोई महीने तक तप करते हैं तो कोई प्रतिदिन भोजन करते है कोई धूल आचार में दृढ होते हैं तो कोई बाह्य आचार का इतनी करता के साथ इतना विशाल हो कि वह सबको किन्तु संघ का नायक या श्रुतधर का विचार क्षेत्र इतना विशाल हो कि वह सबको लेकर चले | विचार की इसी विशालता को प्राप्त करने का साधक के मन में संकल्प हो । भारतीय आचार्य जब अपने शिष्यों को विदा काते थे। तब विदाई संदेश में उनका यही आशीर्वचन होता था 'धर्म ते धीयता बुद्धिः मनस्ते महादस्तु ब । 'शिष्य ! किसी भी क्षेत्र में तुम जाओ, तुम्हारी बुद्धि धर्म के शासन में रहे। तुम अपने आपको न भूल जाओ और तुम्हारा मन विशाल दो। इतना विशाल हो कि उसमें तुम्हारे शत्रु का शवत्व भी समा । जाए। इसी विशालता साधक को प्राप्त करना है। साधना के क्षेत्र में साधक चारित्र की नन्ही चिनमारी विशाल कर्म समूह को क्षय करे और लघु जीवन से सिद्ध स्थिति के विराट संकल्प को पूर्ण करे। साधक जितने अंश में निरवद्य स्थिति को प्राप्त करता है उतने अंश में सम्यक् चरित्र की समाराधना करता है। अतः साधक सावध से निरवय की ओर जाए । निरमद्य से सावध की ओर आना पतन की दिशा है। एवं से सिद्ध बुद्धे । गतार्थः । इति सोम अर्हतर्षि प्रोत बयालीसवाँ अध्ययन ३५
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy