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________________ इसि - भासिया जं तु परं णवएहिं अंबरे वा विहंगमे ॥ ददत्तणित्ति सिलोको' ॥ ८ ॥ अर्थ :- जो दूसरे को नवीन विचारधाराओं के द्वारा आकाश में बिहंगम बने देखते हैं। पर वे अपने आप को दृढ़ रज्जुबद्ध पाते हैं। शेष छठे श्लोक की भांति है । ३० गुजराती भाषान्तर: ( भासो) श्रीनने नवीन पियारीना व्याधारे आशमां (स्वतंत्र ) यक्षीनी प्रेम ( उता) लुवे छे, પણ પોતાને દોરડીથી બંધાયેલો જીવે છે. जब साधक दूसरे को स्वतंत्र बढ़ान भरते देखता है और अपने आप को सुदृढ पाश में बंधा हुआ पाता है, तो उसका हृदय मुक्त गगन में उड़ान भरने के लिये वैसा ही छटपटाता है जैसा पाश में बद्ध पक्षी । सम्यग्दृष्टि आत्मा मुक्ति की ओर जानेवाले ही उसे बन्धन की कठोरता अखर जाती है । णाणा- परहसंबंधे, धितिमं पणिहिर्तिदिए ॥ सुत्तमे गती चेव, तधा साधू णिरंगणे ॥ ९ ॥ अर्थ :- नानाविध नियमों (प्रग्रह) के सम्बन्ध में धैर्यशील दमितेन्द्रिय निरंगण साधु सूत्रमात्र गति का अवलंबन लेता है । गुजराती भाषान्तर:અનેક પ્રકારના જુદા જુદા નિયમોના સંબન્ધમાં ધૈયૅશીલ, ઈન્દ્રિયોને દમન કરનાર, અને સ્ત્રિઓથી દૂર રહેનાર સાધુ સૂત્રને અવલખીને જ ગતિ કરે છે. इच्छा स्वयं एक पाश है। इच्छा की पूर्ति में सुख की कल्पना आत्मा की बद्ध दशा है जब कि इच्छा निरोध मुक्ति का द्वार है । इच्छाओं का गुलाम सारे जगत का गुलाम है। आशा के पाश में बद्ध व्यक्ति का चित्र ठीक वैसा ही होगा जैसा सैकड़ो बन्धनों से बन्धे हुए अश्व का वि । न वह इस ओर हिल सकता है और न वह उस ओर साधक विविध नियमों द्वारा इच्छा के पाश को तोड़ता है और स्वतंत्र बनता है। नियमों के सम्बन्ध में धैर्यशील साधक सूत्र की गति का अवलंब न ले | सच्छेद गतिपयारा, जीवा संसारसागरे ॥ कम्मसंताण संबद्धा, हिंडंति विधिहं भवं ॥ १० ॥ अर्थ :- खच्छन्द गति से घूमने वाली आत्माएँ कर्म संतति से सम्बद्ध होकर विविध भत्रों में भटकती हैं। गुजराती भाषान्तरः સ્ક્વેર વૃત્તિથી લટકવાવાળા આત્માઓ, કર્મથી બંધાઈને ભવોભવ પરિભ્રમણ કરે છે. पिछली गाथा में बताया गया है, साधक इच्छानिरोध के लिये सूत्र द्वारा निर्दिष्ट दिशा में आगे बढ़े। क्यों कि आगम की मर्यादाओं को तोड़कर स्वच्छन्द आचरण रखने वाले प्राणी कर्म वेष्टित होकर भवपरम्परा में परिभ्रमण करते हैं। कम्मताणः — कर्म आत्मा के साथ सन्तति प्रवाह से ही सम्बद्ध है। कोई भी कर्म अनन्त अनन्त काल तक के लिये आत्मा के साथ बंध नहीं जाता है, किन्तु समय की अमुक सीमा विशेष को लेकर ही कर्म आत्मा के साथ चिपकते हैं । किन्तु जब उनका विपाकोदय होता है उस समय वह आत्मा शुभनिमित्त को पाकर राग की परिणति लाता है और अशुभनिमित्त पर द्वेष परिणति रखता है। ये ही परिणतियाँ पुनः अनन्त अनन्त नये कर्मों की वर्गणाएँ आकृष्ट करती हैं और आत्मा उनसे संबद्ध होता है। इत्थमिद्धे बसप, अप्पणो य अबंधवे ॥ जतो विवज्जती पुरिसे, तवो विज्झविणे जणे ॥ ११ ॥ अर्थ :-नारीविषयों में अनुगृद्ध (लोलुप ) रहने वाला आत्मा अपने आपका भी दुश्मन होता है। पुरुष जितना जितना इसका विवर्जन करता है उतना वह उपशान्त रह सकता है । गुजराती भाषान्तर: વિષયોમાં લોલુપ રહેવાવાળો આત્મા પોતાનો જ સ્વયં પણ દુશ્મન હોય છે. પુરુષ જેટલો તેનાથી દૂર રહે છે, તેટલો જ તે શાન્ત રહી શકે છે. १ तुसणे बाइए जगे (रतलामवाली प्रति ).
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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