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________________ १२४ हसि-भासियाई गुजराती भाषान्तर: પહેલા આ બધાને ભવિષ્યકાલ ઉપર જ આધાર હતો. હવે ભવિતવ્ય ભાવી ભાવથી અનપેક્ષિત છે. હરગિરિ અહર્ષિ એમ બોલ્યા. आस्मा अनादि का यामी है। यात्रा के पथ में इसने कहाँ कहाँ विश्राम किया है। कितने रूप बदले हैं या कौन कह सकता है ?। पहले जो रूप था वह रूप आज नहीं है और आज जो रूप है वह रूप कल रहेगा या नहीं कह नहीं सकते। कभी यही आत्मा देव बन कर म्वर्ग के सिंहासन पर बैठा है, तो कभी नरक की काल कोठरी में कैद भी रहा है। कमी इन में नहाया है तो कमी गन्दी नाले का कीड़ा बन कर कुलकुलाया है। जैनदर्शन आस्तिक दर्शन है। वह यह खीकार करता है कि आत्मा अपने पिछले जन्म में अनन्त रूप बदल कर आया है। अनन्त अनन्त जन्म और अनन्त बार की मौत को देख कर वह आया है। फिर किसका सौन्दर्य शाश्वत रहा। टीका :-सर्वमिदं पुरा भास्यं भवितव्यापेक्षमिवानी पुनरभव्य मषितम्यानपेक्ष भवति । पहले भवितव्य के अनुरूप ही प्रवाह था । अब भवितव्य से अनपेक्षित होता है । अतीत में जो कुछ हुआ वह हमा भवितव्य के अरूप था । अम वर्तमान हमारे भवितव्य के अनुरूप नहीं है । इसका अर्थ यह हुआ कि पहले हम नियतिवाद के अधीन थे। अब नियतिषाद से मुक्त है । यह भाव ठीक नहीं लगता है। तथ्य यह हो सकता है कि हम वर्तमान में जो कुछ भी है वह हमारे पूर्व कृत कर्म के अनुरूप है। अतीत में हमने जो कुछ किया है वर्तमान उसी के अनुरूप है। किन्तु भविष्य हमारे पुरुषार्थ पर अवलम्बित है। यदि अतीत हमारा निर्माता है तो भविष्य के निर्माता हम हैं । अतः हम जैसा बनना चाहते हैं वैसा बन सकते हैं। प्रोफेसर शुबिम् लिखते है कि, 'इसके पहले भी दुनियां थी, किन्तु मैं इसका क्षण-स्थायी रूप नहीं जानता था. किन्तु अब मेरे लिए इस के प्रति अल्प भी आकर्षण नहीं है। संसार स्वभाव का ज्ञान मुझे है। फिर भी मेरी आत्मा ज्ञान आदि में रमण करती है। संसार की प्रियता मुख लेकर आती है किन्तु साथही उसकी विरुद्ध दिशा भी मेरे सामने रहेगी। क्योंकि उसका सुख शाश्वत नहीं है। दुनिया उसके हानि और लाभ के साथ संसार की निस्सीमता को प्रकट करेगी। गोश.के विश्लेषण के लिए इतना विवरण पर्याप्त है । यदि इसको सही रूप से समझना है तो आगे आनेवाले पद भनिटि अथवा नियष्टि को भी समझने का प्रयास करना चाहिए। चयति खलु भो य णेरइया रतियत्ता, तिरिक्खा तिरिक्खत्ता, मणुस्सा मणुरुसत्ता देवा देवचा, अणुपरियट्ठति जीवा बाउरंतं संसारकतारं कम्माणुगामिणो तथा वि मे जीवे इथलोके सुझुप्पायके परलोके दुप्पाद अणिप. अधुवे अणितिए अणिधे असासते सजति रजति गिजाति मुज्झति अमोअवजति विणिघातभावाति।। अर्थ:-लारक नारकत्व को, तिर्यग्यौनिक तिर्यक् योनि को, मनुष्य मनुष्यत्व को, देव देवत्व को छोरते है। कर्मानुगामी जीव चातुरन्त संसार वन में परिभ्रमण करते हैं। तथापि मेरी आत्मा इस लोक में सुख का उत्पादक है । परलोक में दुःखोत्पादन करता है। अनियत, अध्रुव, अनित्य और अशाश्वत लोक में यह आत्मा आसक्त और अनुरक्त होता है, गृह होता है, विषयासक बनता है और व्याघात प्राप्त करता है। गुजराती भाषान्तर :-- નારક નારકન, તિલૈનિક તિર્થક યોનિને, મનુષ્ય મનુષ્યત્વને, દેવ દેવત્વને છોડે છે. કમનુગામી છવ ચાતુરન્ત સંસાર વનમાં ભમતો રહે છે. તથાપિ મારો આતમાં આ લેકના સુખનું ઉત્પાદન કરનાર છે. પરલોકમાં પણ દુઃખ સર્જે છે. અનિયત, અદ્ધવ, અનિય અને અશાશ્વત લેકમાં આ આતમા આસક્ત થએલા અને અનુરા હોય છે, લોભી હોય છે, વિષયાસક્ત અને છે અને વ્યાઘાત પ્રાપ્ત કરે છે. नारक नारकस्य को छोडकर कभी पशु योनि पाता है। पशु कभी पशु योनि को छोड कर मनुष्य और कमी देश भी बनता है। किन्तु परिवर्तन का यह नर्तन कभी भी समाप्त नहीं हो सकता है। देव बन कर देवों का वैभव पाया, सागरों तक यहा का सुख लिया, परन्तु एक दिन वहीं से भी धक्का मार कर निकाल दिया गया। किन्तु यह भुलकाड पथिक आत्मा जहां कहीं जाता है वहीं अपना डेरा डाल कर रहने लगता है, मानो वहां से उसको कमी घटना ही नहीं है ।। इतना ही नहीं वह
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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