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attent अध्ययन
१२५ अशाश्वत को शाश्वत बनाने के लिए हजारों प्रयत्न करता है। परिणाम में उसके वे प्रयत्न वर्तमान क्षणतक ही सीमित रह जाते हैं। वह वर्तमान के सुख को लक्ष्य में रख कर चलता है, किन्तु गुल के वे अल्प क्षण परलोक के अनन्त दुःखों को जन्म देते हैं। फिर आत्मा वहां रहता है। उसमें आसक्त होता है किन्तु एक दिन उसके सुख का महल ताश के पत्तों का महल हो जाता है । और वह सब कुछ वहीं छोड़ कर आगे चलने के लिए बाध्य हो जाता है ।
टीका :- खलु भो नैरयिका नैरयिकत्वात् तिर्यग्योनयस्तिर्यग्योनित्वात् मनुष्या मनुष्यत्वात् देवा देवावनुपरिवर्तन्ते जीवाचा तुरंत - संसारकंसारं कर्मानुगामिनः, तथापि मम जीव इहलोके सुखोत्पादकः, परलोके दुःखोम्पादकोनिजोsवोऽनित्यः, अणितिए अणिवेति पदे समस्युत्पत्ती' सजति यावत् मुल्यस्यभ्युपपद्यते विनिधात मापद्यते । गतार्थः । पडण - विकिरण- विद्धंसण धम्मं अग जो गक्खेम समायुक्तं जीवस्स अतारेhi संसारनिकरेति, संसारणिच्छेद करेता शिवमचल० चिट्टिस्तामिति ।
अर्थ :- यह उन पडन, विकीर्ण और विध्वंस धर्मयुक्त-संसार अनेक योगक्षेम और समत्व से रहित जीव के लिए दुस्तरणीय है । वह संसार की वृद्धि करता है। संसार प्रपंच में फंस कर यह दावा करता है कि शिव अचल स्थान को प्राप्त करूंगा।
गुजराती भाषान्तर:
આ સડન પાન, વિકીર્ણ અને વિધ્વંસ ધર્મયુક્ત સંસાર અનેક યોગક્ષેમ અને સમત્વથી રહિત જીવને માટે દુસ્તરીય છે. તે આ સંસારની વૃદ્ધિ કરે છે. સંસાર પ્રપંચમાં ફસાઈને આ દાવો કરે છે કે શિવ અચલ સ્થાન प्राप्त उरीश,
जब तक संसार की आसक्ति नहीं समाप्त हो जाएगी तब तक भव-परंपरा भी नहीं समाप्त होगी । जो तप और साधना करता है और बोलता है कि में भव-समाप्ति के निकट हूं वद भ्रान्ति में है। जब तक जिसने योग और क्षेम को नहीं पहचाना है और समता का पाठ नहीं पढ़ा है तब तक उसकी साधना भव- परम्परा को समाप्त करने में सहायक नहीं हो सकती है । समता साधना का अन्तःप्राण हैं । साधना चलती रही, और कषाय की मात्रा बढ़ती रही उस साधना का कोई मूल्य नहीं है । एक आचार्य ने ठीक ही कहा है पेय और वेष में मुक्ति नहीं हैं तब के उलझन और तर्क के छिलटे निकालने में भी मुक्ति नहीं है, अपि तु कषाय मुक्ति ही यथार्थ मुक्ति है ।
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नाशम्वरत्वेन सितम्बरत्वे न तस्ववादे न च तर्कवादे । न पक्षसेवाश्रयणेन मुक्तिः, कषाय मुक्तिः किल एव मुक्तिः ।
टीका :- इमां च पुनः शटन, पटन, विकिरण, विध्वंसन, धर्ममनेक, योगक्षेम, समायुकजीवख्यातीय संसारनिष्टि करोति लोकप्रपंच सेवते, इमां च संसार निर्व्यष्टि कृत्वा संसारकांतारमनुपरिवर्तते तन्त्वनुवृत्य संवेगनिर्वेदौ गता इत्यर्थपूर्णार्थमध्याहार्थं परन्तु शिवमित्यादि याचत् चिट्टिस्लामित्ति अपास्यं मिथ्येह निवेशितत्वात् ।
योग, क्षेम और समभाव से रहित मात्मा के लिए दुस्तीये शन, पढन, विकिरण और विध्वंसन गुण युक्त संसार निर्वयष्टि अर्थात् उलझी हुई गुत्थी है। समभाव रहित साधक संसार की छोर रहित गुत्थी को सुलझाने के लिए विश्व में भटकता रहता है | उस गुल्मी में उलझा हुआ आत्मा संवेग निर्वेद को प्राप्त करता है। यह अपूर्ण अर्थ वाली बात है । किन्तु शिव इत्यादि विशेषण युक्त स्थान में ठहरूंगा यह खंडित हो जाता है | अतः यह पाठ मिध्या रूप में यहां आगया है ।
प्रोफेसर बिंग भी लिखते हैं कि मोक्ष में परिवर्तन संभव नहीं है। अतः ऐसा लगता है कि वे शब्द गलत ढंग से बिठा दिए गए हैं।
तुम्हा अधुवं असास मिणं संसारे सव्वजीवाणं संसतीकरणमिति णचा णाणदंसणचरिताणि सेविस्लामि, णाण - सण-चरिताणि सेविता अणदीयं जाव कंतारं वितियतित्ता सिवमचल जाच ठाणं अभुगते चिट्टिस्वामि ।
अर्थ :- अतः अनुष अशाश्वत संसार में सभी आत्माओं के लिए संसकि और दुःख ही है । यह जान कर में शान दर्शन चरित्र स्वीकार करूंगा और इस प्रकार अनादि यावत् भव-वीथिका का अतिक्रमण कर शिव शाश्वत स्थान को प्राप्त करूंगा।