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इसि-भासियाई टीका:-- यत् सुखं सुखेन लब्धं तद् अत्यन्तसुखमेव, यस् दुःख दुःखेन लग्धं मा मम तेम समागमो भूविति बौद्धर्षिणा भाषितम् ।
मणुण्णं भोयणं भोचा मणुगणं सयणासणं ।
मणुगणंसि अगारंसि झाती भिक्खू समाहिए ॥२॥ अर्थ :-- मनोज्ञ भोजन करके और मनोज्ञ शयनासन पाकर मनोज्ञ भवनों में भिक्षु समाधिपूर्वक ध्यान करता है । गुजराती भाषान्तर:
મનગમતું જમણ, મનગમતું શયનનું સુખ કે આસનનું સુખ મેળવીને મનગમભવનમાં બૌદ્ધ ભિક્ષ સમાધિપૂર્વક ધ્યાન કરે છે.
टीका:- मनोझं भोजनं भुक्त्वा मनोज्ञे शयनासने मनोशेऽपारे धुवभिक्षुः समाहितो ध्यायति । गताः । मिशेष टीकाहार मिश्न, शब्द को मौत परंपरागत मिक्ष के अर्थ में व्यवहत मानते हैं।
अमणुषणं भोयणं भोच्चा अमणुण्णं सयणासम् । अमणणंसि गेहंसि दरखं भिक्ख झियायती॥३॥ एवं अणेमवण्णानं तं परिचज पंड़िते।।
णण्णत्थ लुभई पण्णे पय वुद्धाण सासणं ॥४॥ अर्थ:-अमनोज्ञ भोजन करके अमनोज शयनासन पाकर अमनोज्ञ घरों में भिक्षु दुःख का ध्यान करता है। इस प्रकार अनेक वर्णवालों का विचार है किन्तु उसे छोड़ कर प्रज्ञाशील कहीं पर भी नहीं होता है यही बुद्ध कि ( प्रवुद्ध आत्मा की) शिक्षा है। गुजराती भाषान्तर:
ન ગમે તેવું ભોજન કે શયન અથવા આસનનો અનુભવ કરીને ન ગમતા ઘરમાં રહી શિશુ દુઃખનો વિચાર કરે છે. આ પ્રમાણે અનેક વર્ણવાળા માનવીનો વિચાર છે. પરંતુ તેને છોડીને બુદ્ધિમાન માણસા ક્યાંય પણું આસક્ત થતો નથી. આ જ બુદ્ધ (પ્રબુદ્ધ) આત્માની શિખામણ છે.
साधक मन के प्रवाह में न बहे । मन अपने पसंद के पदार्थों को पाकर आनंदित होता है और उसके प्रतिकूल पाकर दुःखानुभूति करता है। किन्तु यह स्थिति साधक को सम रसता का भंग कर देती है। अर्णययष्णाणे से चानत होता है यह मात पादांपत्यो के लिये कही गई है अथवा बौद्ध परंपरा के साधुओं के लिये। क्योंकि भगवान महावीर के शासन के मुनि तो केवल ही रणे ते वस्त्र पहनते हैं। पार्श्वनाथ प्रणु की परंपरा में पांचों वर्ण के वस्त्रों का विधान है और बौद्ध परंपरा में भी काषाय रंग के वस्त्रों का विधान हैं और वे प्रासादों में ठहरते भी थे। मध्ययुग का इतिहास तो बताता है बौद्ध भिक्षु उत्तरवर्ती युग में राज्याश्रम पाकर किस प्रकार भवनों में प्रवेश कर गये थे।
___ साधक मन को साधे। भवन हो या वट वृक्ष मिष्टान्न हो या रूखी रोटी दोनों के लिये उसके मन में एक स्थान होना चाहिये । मिष्टान्न उसे लुभा न सके और रूखी रोटा उसके हृदय में तिरस्कार न पा सके।
टीकाः- स एवामनोज भोजन मुक्त्वा शयनासने यामनोज्ञे गृहेऽमनोज्ञे दुःख ध्यायत्यातमपभ्यान करोतीत्यर्थः । तं ताशमेवमनैकवर्णकमन्यतीर्थकं भिक्षु नानागुणपदार्थ वा परित्यज्य पंडितः प्राज्ञो नान्यन्न लुभ्यति एतद् यथार्थबुद्धय शासनम् । मतार्थः।
जाणावणेसु सद्देसु सोयपत्तेसु चुजिभ ।
गर्हि वायपदोसं वा सम्म वजेज पंडिय ॥ ५॥ एवं रूपेसु गंधेसु रसेसु फासेसु अप्पप्पणाभिलावणं । अर्थः-श्रोत्र प्राप्त नानाविध शब्दों में गृद्धिभाव और वाक् प्रदोष को बुद्धिमान प्रज्ञाशील साधक सदैव छोडे । रूप गंध रस और स्पर्श आदि में भी साधक आसक न बने ।