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________________ १७० दी-लासिता उसके लिए हिमालय की चढाई होती है। अथवा वृद्ध वेल जिस प्रकार से प्रारम्भ में ठीक चलता है, किन्तु अन्त में उसकी बूढी रांग जबान देती हैं। उसके द्वारा यात्रा सुरक्षित नहीं हो सकती है । इसी प्रकार अशुभ परिणति प्रारम्भ में तो ठीक गति करती है और मानव उसके पीछे दौड़ता है। किन्तु अन्त में वह परिणति उसके लिए विघातक बन जाती है । अप्पकताऽचपहेहिं, जीवा पार्वति घेवणे । अप्पक्वतेहि सल्लेहिं, सल्लकारी व बेदणं ॥ १३ ॥ अर्थ:-आत्मकृत अपराधों के ही द्वारा आत्मा वेदना को प्राप्त करता है । आन्मक़त शल्यों के द्वारा ही शल्यकारी वेदना को पाता है। गुजराती भापान्तर: પોતે ( આત્માએ) કરેલા અપરાધની દ્વારા જ આત્મા વેદના(હુ)ની પ્રાપ્તિ કરે છે. આત્મકૃત શો દ્વારા શલ્યકારી વેદનાને પામે છે. हम अपनी ही गलतियों के द्वारा दुःख पाते हैं। इस मोटे सिद्धान्त को मानव आज तक समझ नहीं सका है। यदि इतनी सी समझ उसको आ जाती तो दुनिया की आधी अशान्ति समाप्त हो जाती । पर इस ज्ञान चेतना के अभाव में हम अपने दुःखों की जड़ दूसरे में खोजते है और उस व्यक्ति को ही दुःख का प्रमुख हेसु मान कर हम उसको नष्ट कर देना चाहते हैं। यह अज्ञान ही संघों का मूल है। मानव ! अपने सुख दुःख का विधाता तू स्वयं ही है। सुख के लिए तू क्यों दूसरों से मील मोगता है और दुःख के लिए क्यों दूसरों पर रोष ठेलता है। भगवान महावीर ने आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व पात्रा पुरी के अन्तिम प्रवचन में एक दिन इसी महान सत्य को जनता के सामने रखा था अप्पा कसा विकत्ता स सुहाण य दुहाण य। अप्पा मित्तममितं च बुटियो सुपहियो । -उत्तरा० अध्ययन । मेरे सुस्त दुःख का उत्तरदायित्व में स्वयं ले कर चलता हूं। दुनिया की कोई भी बाहरी ताकात न मुझे सुख दे सकती है और ने उसमें इतना साहस ही है कि मेरे एक अणु को भी दुःखी कर सके । निश्चयनय की यह भाषा मानव को आत्मविश्वास की अपूर्व ज्योति दे जाती है। जीवो अप्पोवघाताय, पउते मोहमोहितो। बद्धमोग्गरमालो वा, णवंतो बहुवारियो ॥ २४ ॥ अर्थ:-मोह मोहित आत्मा अपने ही उपघात के लिए पतन करता है । बन्ध स्प मुद्गल को ग्रहण करके बहुधा विश्व के रंगमंच पर नृत्य करता है। गुजराती भाषान्तर: મોહથી મોહિત બનેલો આત્મા પોતાના જ ઉપઘાતને માટે પતન કરે છે, અધરૂપ મુળને ગ્રહણું કરીને ઘણીવાર વિશ્વના રંગમંચ પર નાચે છે. मोह स्वयं ही एक बंधन है। मोह के तार सूक्ष्म है किन्तु उनकी पकड महरी होती है। भ्रमर कठोरतम सीसम को तोड सकता है, किन्तु कोमल कमल में वह बंध जाता है । कठोर सीसम को तोड़ देने वाला कोमल कमल को नहीं तोड सका इस प्रश्न का उत्तर होगा कि मोह के धागों ने उसकी शक्ति को कठोरता से आबद्ध कर रखा है। मोह के तारों से अंधा व्यक्ति अपनी शक्ति को कुंठित कर देता है। कभी वह स्वयं अपने आप को पतन के गहढे में डाल देता है । मोह बन्धनों से बद्ध प्राणी मुद्गल हाथ में लेकर विश्व रेग-मंच पर अनन्त काल से नृत्य करता चला आ रहा है। युग बीत गए पर नृत्य नहीं समाम हुआ। भारत का एक भक्त कवि कह रहा है कि: अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल। काम क्रोध को पहिरि चोसना कण्ठ विषय को माल । महाकवि सूरदासजी जिन्होंने आँख वालों को दृष्टि दी है, वे कहते हैं कि, हे प्रमो ! काम कोध का चोला पहन कर दुनिया के रंग-मंच पर मैं बहुत नाच चुका हूं, परन्तु अब विश्राम याहता हूं।
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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