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________________ तेंतीसवां अध्ययन २०५ कलाणमित्तसंसगि संजओ मिहिलाहियो । फीतं माहितलं भोशा तं मूलाक दिवं गतो॥१६॥ - अर्थ :--कल्याणमित्र के संसर्भ में निथिलाधि५ संजय संपूर्ण पृथ्वीतल को भोगकर उगते सूर्य की प्रभावाले दिव्य लोक को प्राप्त हुआ। गुजराती भाषान्तर:-- કલ્યાણમિત્રના સંપર્કમાં રહેવાથી મિથિલાના રાંજય નામનો રાજા સંપાઈ પAી ઉપર રાજય કરી ત્યાંના બધા ભોગો ભોગીને ઉદય પામતા સુરજની જેવી પ્રભા મેળવી સ્વર્ગમાં સીધાવ્યા હતા. पूर्वगाथा में अच्छे साथी की आवश्यकता पर बल दिया गया था । प्रस्तुत गाथा उसकी सोदाहरण ब्याख्या करती है। मिथिलानगरी के सम्राट् संजय ने कल्याण मित्र के द्वारा ही विजय पाई थी और उसी की सत्प्रेरणा के द्वारा वह निवृत्ति माग में प्रविष्ट होकर दिग्ध लोक में पहुंचा। यह मिथिलाधिप संजय कौन है और उसकी पूरी कथा क्या है यह ज्ञात नहीं हो सका। किन्तु हो, प्रस्तुत गाथा उस कथा की ओर संकेत करती है। टीका:-कल्याणमित्र संसर्ग कृत्वा संजयो मिथिलाधिपः । स्फीतं महीत, भुक्त्वा तन्मूलं भोजनं मूलं भवति यथा तथा दिवं गतः। अर्थात् कल्याणमित्र के संसर्ग को पाकर मिथिलाधिप संजय संपूर्ण पृथ्वीतल को भोगकर स्वर्ग गया जैसे शरीर के लिये भोजन कायाणप्रद है ऐसे जीवन के लिये कल्याण मित्र आवश्यक है। प्रोफेसर शुस्मिन् लिखते हैं: सत्य और असख काओं और वचन के द्वारा चतुर और मुर्ख की परीक्षा हो सकती है। किसी अज्ञात कारण से इस विद्वत्ताभरे लेख का लेखक स्पष्टीकरण के अन्तिम श्लोक में अपना नाम देता है । मिथिला नरेश संजय विशेष परिचित नहीं है। अरुणेण महासालपुत्तेण अरहता इसिणा बुइतं सम्मतं च अहिंसं च सम्म णचा जितिदिए। ___ कल्लाणमित्तसंसगिंग सदा कुव्येज पद्धिप ।॥ १७ ॥ अर्थ :-महाशाल पुत्र अर्हतर्षि अरुण इस प्रकार बोले-जितेन्द्रिय और प्रशाशील साधक सम्यक्त्व और अहिंसा को सम्यक् प्रकार से जानकर सदैव कल्याण मित्र का ही साथ करे । गुजराती भाषान्तर:--- મહાશાલ-પુત્ર અતર્ષિ અરણ એમ બોલ્યા કે જીતેન્દ્રિય બુદ્ધિવાન સાધકે સમ્યકત્વ અને અહિંસાને સારી રીતે જાણી હમેશા હિતેચ્છુ સજજનના સમાગમમાં રહેવું જોઇએ. आरम विकास तक पहुंचने के दो साधन है-एक बाध साधन दुसरा आभ्यन्तर । बाल साधन में कल्याण मित्र आता है । कुशल और योग्य साथी जीवन की नैया को तीर पर ले जाने में सहायक होता है। लक्ष्य तक पहुंचने का आभ्यंतर साधन अहिंसा और सत्ल का सम्यक् अवबोध है । अहिंसा और सत्य के सम्यक् अवबोध के लिये साधक विचारक पुरुषों का राहयोग प्राप्त करे । एवं से सिद्धे धु० ॥गतार्थम् । आरुणिज्जणामायण इति यत्रिंशत्तमं आरुणीयाध्ययनम् ।।
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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