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________________ २०४ इसि-भासियाई ज्ञानी मित्र के सहा जीवन में दूसरा कोई वरदान नहीं है । ऐसा साथी जीयन के उन कटु प्रसंगों में जब कि तुम्हारा धैर्य जवाब दे बैठेगा और तुम अपने कर्तव्य की मांजल से गिर रहे होंगे तब तुम्ह जीवन की सच्ची राह दिखाएगा। क्योंकि उसके मन में स्वार्थ की छाया नहीं है। अतः वहां तुम्हें प्रकाश की ही प्रेरणा मिलेगी। पाश्चात्य विचारक बेकन ने कहा है'सच्चा मित्र आनंद को दुगना और दुःख को अधा कर देता है। मनुष्य जी दे उसे भूल जाय और दूसरे से ले उसे सदैव याद रखे यही मित्रता की जर है। और ऐसी मित्रता में । उत्तम वैद्य की सी निपुणता और परसा होती है, और अच्छी से अच्छी मातका-सा धैर्य और कोमलता होती है। संसग्नितीसूर्यातदोला या अहवां गुणा। वाततो मारुतस्सेव ते ते गंधा सुहावहा ॥ १३॥ अर्थ :-शेष और गुण संसर्ग से पैदा होते हैं। वायु जिस ओर बहती हैं वहां की गंध को ग्रहण कर लेती है। गुजराती भावान्तर : દોષ અને ગુગ એક બીજાના સંસર્ગથી જ પેદા થાય છે; પવન જે દિશાતરફ વહે છે, ત્યાંની સુગંધ કે દુર્ગધને પણ સાથે લઇ વહે છે, वायु यदि बुरभित स्थान से गुजरती है तो वहां की सौरभ लेकर आगे बढ़ती है और यदि वह गंदगी से गुजरती है तो वायु भी इषित हो जाती है । जीवन भी एफ वायु है । जो सजन पुरुषों के माहचर्य में रहता है तो वहां सद्गुणों की सुवारा प्राप्त करता है और बुरे व्यक्ति के पास पहुंचता है वहां से बुराई ही ग्रहण करता है। संपुग्णवाहिणीओ वि आचना लवणोदधि । पप्पा खिप्पं तु सब्बा वि शचंति लवणतणं ॥१४॥ अर्थ:-सभी नदियां लवणसमुद्र में मिलती हैं और वहां पहुंचते ही सभी अपनी स्वाभाविक मधुरता को छोड़कर खारापन प्राश कर लेती हैं। गुजराती भाषान्तर: બધી (મીઠા પાણીવાળી, નદી રમુંદરામાં મળી જાય છે, અને ત્યાં મળી જતાં જ બધી નદીઓ પાણીની કુદરતી મધુરતા (મીઠાસ ) ને મુકી દઈ ખારા સ્વાદને લઈ લે છે. एक संस्कृत उक्ति है "संसजा दोषगुणा भवन्ति" मनुष्य दूसरों के सङग देर से ग्रहण करता है किन्तु दोष तो बहुत जल्दी ले लेना है। मानव ही नहीं प्रकृति का भी यही गुण है। इत्र की शीशी में दो बून्द मिट्टी का तेल गिर जाता है तो उसमें सौरभ स्थान पर मिट्टी के तेल की गंध आने लगेगी। अईनर्षि सोदाहरण यही बता रहे है-नदियां मधुर जाल राशि लेकर सागर में पहुंचती हैं और मिलन के प्रथम पण में अपनी सारी मधुरिमा खो बैठती है। उनकी मारी जलराशि क्षार मिश्रित हो जाती है। समस्सिता गिरि मेलं णाणावणा वि पक्खिणो । सचे हेमप्पभा होति तस्स सेलरस सो गुणो ॥ १५ ॥ अर्थ:-विविध वर्ण-वाले पक्षिगग जब सुमेह पर्वत पर पहुंचते हैं तो समी स्वर्ण प्रभा युक्त हो जाते हैं, यह उस पर्वत का ही विशिष्ट गुण है। गुजराती भाषान्तर: અનેક વર્ણવાળા પક્ષીઓ જ્યારે સુમેરુ પર્વત ઉપર જાય છે, ત્યારે તેઓને રંગ સોના જેવો જ બની જાય છે તે પર્વતનો આ એક ખાસ ગુણ છે. दोष और गुण संसर्ग से आते है। प्रस्तुन गाथा इसी तथ्य को स्पष्ट कर रही है। पूर्व माथा में संसर्ग जन्य दोष बताया गया था। प्रस्तुत माथा उसके विपरीत संसर्गज गुण का निरूपण करती है। किसी भी वर्ण का पक्षी सुमेह के निकट पहुंचता है तो उसकी प्रभा से सभी स्वर्णप्रभ हो जाते हैं।
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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