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ऋषिभाषितानि-प्रतियों का परिचय प्राप्ति की कहानी
इन्दौर से नम्बई आते हुए भांडुप में सुनावक श्री मणीभाई गांधी जी ने मुझे ऋषिभाषित की एक प्रति दी। यह मेरा ऋषिमाषित से पहला परिचय था। प्रथम दृष्टि में ही मैं कुछ पन्ने उलट गया। कुछ गाथाएं देखी । मन को गहरा आकर्षण हुआ और अनुवाद की प्रेरणा भी जगी । तीन दिन के बाद ही अनुवाद चल पड़ा । नया नया विषय था । पाठ भी कुछ दुरूह लगे, पर मन का उत्साह उन सबसे ऊपर था । इस दुरूहता की कहानी विद्वानों के समक्ष रखी तो पं० खेचरदासजी और पं० दलसुखभाई के सुझाव आये कि अन्य प्रतियों से पाठ संशोधन करें । पर प्रश्च तो प्रतियों की प्रासि का था। अहमदाबाद में प्रसिद्ध आगम सेवी विद्वान् मुनि श्री पं० पुण्य विजयजी म. से पत्रपरिचय स्थापित किया । उत्तर संतोषपद था व उन्होंने हस्तलिखिन प्रतियों की उपलब्धि में सहयोगी होने की कामना प्रकट की। मेग अनुवाद कार्य चलता रहा । प्रतियों की उपलब्धि के लिये अहमदाबाद से फिर संपर्क स्थापित किया पर अहमदाबाद मौन था ! करीष दाई महीनों की लम्बी प्रतीक्षा के बाद पत्र आया कि पाटण से ऋषिभाषित की चार प्रतियां आगई हैं और कुछ दिनों में वे प्रतियां मेरे हाथ में थीं।
पाठ संशोधन हाथ में लिया । पर इस दिशा में पहला ही प्रयास था । प्राचीन लिपि के पुराने मोड़, पडिमात्राएं सब कुछ मेरे लिये नये ही थे, फिर भी प्रारंभिक कुछ कठिनाइयों के बाद प्राचीन लिपि से दोस्ती होगई और संशोधन का काम चल पड़ा। इस कार्य में प्रियवक्ता पं० विनयचन्द्रजी म. और सौभाग्यमलजी जैन कोट का सहयोग भूलाया नहीं जा सकता।
प्रतियों की कहानी
चारों प्रतियों पाटण भंडार की हैं। उन पर मुद्रालेख भी अंकित है। पांचवी छपी हुई प्रति है। लम्बी प्रति
- डा० २१६ । नं १००८३ इस प्रति को हम लम्बी प्रति के नाम से पहचानेंगे, क्योंकि यह प्रति अन्य प्रतियों में सर्वाधिक लम्बी है । इसकी लम्बाई १३॥ इंच है । पत्र संख्या १३ है । हर पन्ने में एक रंगीन चित्र है। अक्षर भरावदार और घुमावदार हैं और कुछ बड़े भी हैं । पड़ी मात्राओं में यह लिखी गई है पर यह प्रति काफी अशुद्ध है। कहीं पाठ के पाठ गायब हैं तो कहीं द्विरुक्तियां हैं । साथ ही इसका लेखक ग के द्वित्व को सदैव 'न' के रूप में लिखता है । 'परिमगइ' को हमेश परिग्रह के रूप में ही लिखता है। इसमें लेखक का नाम नहीं है साथ ही सन संवत् भी नहीं दिया गया है । लिखावट में प्राचीनता बोलती है । सन् संवत के अभाव में यह ठीक ठीक तो नहीं कहा जा सकता कि यह कितनी पुरानी है। फिर भी पत्रों को जीर्णता और लिपि के प्राचीन मोड़ इसकी पुरातनता सिद्ध करने में काफी हद तक सहायक होते हैं। छोटी प्रति .
छोटी प्रति इसका हमनें यों नाम दिया कि यह प्रति पहली प्रति की अपेक्षा काफी छोटी है। प्रति आवरक पर परिचय यो मिलता है । अधिभाषित प्रकीर्णक, पत्र संख्या १३ । डा ४१ नं० ७५२ । इस पर पटण मंडार का मुद्रालेख है-श्री हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानमन्दिर, पाटण श्रीसंघनो जैन ज्ञान भंडार।। • यह प्रति प्रथम की अपेक्षा अधिक शुद्ध है। इसमें द्विरुक्कियों का अभाव है। शेष में प्रायः दोनों का स्वर मिल जाता है । लिपिकार ग के द्वित्व को प्र के रूप में ही लिखता है।