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इस - भासियाई
प्रति की प्राचीनता के सम्बन्ध में स्पष्ट प्रमाण मिलता है। प्रति के अन्त में लेखक ने संवत् दिया है- 'संवत् १४९५ वर्षे माघ वदि १२ भूमे लिखितं । छ ७४ ग्रंथ ८१५ | यह प्रति स्पष्ट रूप से ५०० वर्ष की प्राचीन सिद्ध होती है । "भूमे लिखित " स्पष्ट जरा स्पष्ट नहीं होता, पर संभवतः इसका अर्थ होगा भौमवार को लिखी गई है। मंगलवार को देशी भाषा में भौमवार भी कहा जाता है। ग्रंथाग्र ८१५...
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तीसरी प्रति
इसके पत्रों की लम्बाई चौड़ाई, आकार प्रकार, दूसरी प्रति के अनुरूप है । आवरंक कबर पृष्ठ पर परिचर्य इस प्रकार है:- ऋषिभाषित पत्र संख्या १५ डा० १७६ नं० ६८७२ श्री हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानमंदिर पाटण, श्री वांडी पार्श्वनाथ जैन ज्ञान भंडार ।'
द्वितीय प्रति पर श्री संघ नो जैन ज्ञान भंडार का मुद्रालेख है । प्रस्तुत प्रति चाड़ी पार्श्वनाथ के जैनज्ञान भंडार की है। प्रस्तुत प्रति प्रथम दो प्रतियों से अधिक शुद्ध है । द्विरुक्तियाँ नहीं जैसी हैं। अशुद्धियां मी अल्पतर हैं । प्रस्तुत प्रति अपेक्षाकृत मुद्रित प्रति के अधिक निकट है। लेखक "ग" के द्वित्व को कही द्वित् रूप में और कभी के रूप में लिखता है ।
प्रति की प्राचीनता
प्राचीनता की दृष्टि से प्रस्तुत प्रति सर्वाधिक प्राचीन लगती है । यद्यपि इसके अन्त में सन् संवत् का अभाव है । अतः निश्चित रूप से तो नहीं कहा जा सकता कि यह कितनी पुरानी है फिर भी इसके पत्र सर्वाधिक जीर्ण जर्जर हैं। पत्रों के बीच में छेद भी हो गये हैं । यह सब मिलाकर कह सकते हैं प्रति का निर्माण काल ५०० वर्षों से अचीन तो नहीं है। साथ ही प्रस्तुत प्रति में प्रशस्ति के रूप में ऋषिभाषित की संग्रह गाथाएं भी दे रखी हैं। प्रथम दो प्रतियों में इसका अभाव है।
ऋषिभाषित उद्धार प्रति
आवरक पृष्ठ पर इसका परिचय यों दिया है। ऋषिभाषित उद्धार, पत्र संख्या ३ डा० ३६ नं० ६१८ मुद्रालेख श्री हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानमंदिर, पाटण - श्री संघनो जैन ज्ञान भंडार । :
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यह पूरी प्रति नहीं है । जैसा कि उद्धार नाम से ही कुछ आभास मिल जाता है । उद्धार से यहां पुनरुद्धार का आशय नहीं है, अपितु ऋषिभाषित की सूक्ति स्वरूप मर्मार्थी गाथाओं का सुन्दर लघु संकलन है । संकलन में गाथाओं के अतिरिक्त पाठ भी लिया गया है। गाथाएं प्रारंभ में तो पूर्ण हैं, पर बीच बीच में कहीं कहीं गाथाओं के दो ही चरण लिये हैं। कहीं पदों को विरुद्ध क्रम में भी रख दिया गया हैं, पर सर्वत्र नहीं, एक दो स्थानों पर ही ऐसी भूल हुई हैं ।
प्रस्तुत प्रति की लेखन शैली से अनुमान होता है यह अति प्राचीन नहीं है । क्योंकि अक्षरों के मोड़ भी अचीन है । अक्षर भी वर्तमान देवनागरी के हैं, साथ ही इसमें पड़ी मात्राओं के प्रयोग नहीं है। जोकि प्राचीन प्रति की अपनी निजी विशेषता होती है । पछिमात्रा का मतलब है ए ऐ और ओ औ की मात्राएं अक्षर के ऊपर न लगाकर उसके पूर्व भाग में लगाई जाती हैं। जैसे कि "सोयव्यमेब" बदति को वे “सायन्त्रामय" वदति लिखते हैं । विशेष परिचय हस्त प्रतियों के फोटू स्वयं दे रहे हैं ।
मुद्रित प्रति
प्रस्तुत प्रति रतलाम से प्रकाशित हुई है । सन् १९२७ में छपी है। श्री ऋषभदेव केशरीमलजी नामक संस्था की ओर से प्रकाशित की गई है। परन्तु संपादक का नाम नहीं है। सफाई आदि ठीक होने पर भी प्रति में
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