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इसि-भासियाई आगमों के मुख्य सम्पादक के रूप में आर्य देवर्द्धि गणि को हम मानते हैं तो इसिभासियाई सूत्र के संकलन कर्ता भी उन्हीं को मान सकते हैं । जब तक नई खोज एवं नया तम्य सामने न आए तब तक हमें इसी तथ्य को स्वीकार करके चलना चाहिए।
प्रस्तुत सूत्र की भाषा प्रजिल है । कुछएक खलों को छोड़कर प्रायः सर्वत्र सुघोधता है । एक अध्ययन में प्रायः एक विषय का निरूपण है । सभी गाथाएं अन्तर से अनुस्यूत है । विषय का प्रतिपादन हृदयस्पर्शी है। कुछ स्थल तो ऐसे हैं जो सीघे हृदय को स्पर्श कर जाते हैं और मन मस्तिष्क को झकझोर कर साधक की सुप्त चेतना को जाग्रत कर देते हैं। इसिभासियाई सूत्र का वर्तमान रूप
काफी कांट छांट और तराश निखार के बाद इसिभासियाई सूत्र ने वर्समान रूप प्राप्त किया है। प्रत्येक अध्ययन के प्रारंभ में संक्षिप्त विषय प्रवेश दिया गया है जो अध्ययन में वर्णित विषय की ओर संकेत करता है। फिर संशोधित मूल पाठ दिया गया है। फिर मूलस्पर्शी अर्थ आता है | उसके नीचे गुजराती अनुवाद भी दे दिया गया है, क्योंकि गुजरातीभाषी माइयों की मांग थी कि गुजराती अनुवाद के अभाव में गुजराती समाज के लिये उपयोगी न हो सकेगा। अतः सार्वजनीन उपयोगिता को लक्ष्य में रखकर गुजराती अनुवाद देने की बात भी स्वीकार कर ली गई।
गुजराती अनुवाद के बाद हिन्दी विवेचन दिया गया है, जिसमें मूल के हार्द को स्पष्ट करने की चेष्टा की गई है। उसके अभाव में केवल मूलस्पर्शी अर्थ पाठकों की जिज्ञासा को पूरी तरह संतुष्ट नहीं कर सकता था।
चन के पश्चात संस्कृत टीका को स्थान दिया गया है। टीका का अर्थ प्रायः मूलस्पर्शी अर्थ से साम्य रखता है, अतः उसका अनुबाद नहीं दिया गया है । गतार्थ कहकर आगे बढ़ गया हूं। जहां मूलस्पर्शी अनुयाद और संस्कृत टीकाकार के अभिप्राय भिन्न पड़े हैं वहां टीका के साथ अर्थ भी दे दिया गया है। इसके साथ ही डाक्टर शुकिंग की टिप्पणियों को भी स्थान दिया गया है। डा. शुनिंग की टिप्पणियां कहीं कहीं बहुत महत्वपूर्ण बन गई है, कहीं कहीं उन्होंने सूत्रकार की भूल की ओर भी इंगित किया है। जहां कुछ पाठ ही छूट गया है। प्रबन्ध रचना की त्रुटि एवं छन्दो-भंग आदि के लिये अनेक स्थानों पर उन्होंने संकेत दिया है । प्रायः टीकाकार टिप्पणीकार
और हम एकमत हैं, कहीं टीकाकार से मैं अलग हो गया हूं और कहीं कहीं तो हम तीनों तीन रास्ते पर हो गये हैं । टीकाकार बाल्ड लीडट है और टिप्पणीकार डाक्टर शुनिंग है । जैसे कि मैं पहले लिख आया हूँ टीका संक्षिप्त है अतः समी स्थलों पर नहीं दी गई है। टिप्पणी मी आवश्यक स्थलों पर दी गई है।
प्रस्तुत सूत्र के अनुवाद एवं विवेचन में काफी सावधानी रखी गई है । सत्य भूत होकर अहंतर्षि के विचारों को स्पष्ट करने की चेष्टा की गई है। उसमें कहां तक सफलता मिली है यह निर्णय आपके (पाठकों) ऊपर अड़ता हूं। स्वातंत्र्य दिन १५ आगस्त १९६१
मनोहर मुनि राजगढ जि.धार
करन का वध की
१. देखिये तृतीय अध्ययन,