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________________ इक्कीसवां अध्ययन. १०९ अण्णाणं परमं दुक्खं, अण्णाणा जायते भयं । अण्णाणमूलो संसारो, विविहो सयदेहिणं ।। १॥ अर्थ:-अज्ञान ही बहुत बड़ा दुःख है । अज्ञान से ही भय का जन्म होता है । समस्त देहधारियों के लिए भवपरम्परा का मूल चिदिक अप में व्याः पर उहा है। गुजराती भाषान्तर: અજ્ઞાન જ મોટું દુઃખ છે, કેમકે અજ્ઞાનથી જ ભયને જન્મ થાય છે; બધા માનવોને માટે ભવપરંપરાનું મૂળ જુદા જુદા રૂપમાં વ્યાપી રહેલ આ અજ્ઞાન જ છે, अज्ञान ही यथार्थ दुःख है। स्वप्न में एक व्यक्ति-सर्प देखता है और भयभीत हो कर भागता है। किन्तु तमी उसकी निद्रा भंग हो जाती है, उसका भय समाप्त हो जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जब तक अज्ञान की निद्रा है तब तक दुःख और भय अवश्य ही रहेगा। मिगा बसंति पासेहि, विहंगा मत्तयारणा । मच्छा गलेहिं सासंति, अण्णाणं सुमहरभयं ॥ २॥ अर्थ:-अज्ञान के द्वारा ही हरिण, पक्षी और मन गजेन्द्र पाश मैं बंधते हैं, और मत्स्यों के कंठ विधे जाते हैं, अज्ञान ही संसार का सब से बड़ा भय है। गुजराती भाषान्तर: અજ્ઞાનને લીધે જ હરણ, પક્ષી અને મદોન્મત્ત હાથી પાશમાં બંધાય છે અને માછળીના કંઠ વિંધવામાં આવે છે. સંસારમાં અજ્ઞાન જ સૌથી મોટો ભય છે. पूर्व गाथा में अज्ञान को ही दुःख का आद्य हेतु बतलाया गया है। प्रस्तुत गाथा उसी की सोदाहरण' व्याख्या प्रस्तुत करती है। एक शिकारी जब बंशी की मीठी तान छेड़ता है तब हिरण दौडता हुआ उसके पास चला आता है। संगीत की स्वर-लहरी में वह मुग्ध हो जाता है। और शिकारी के बाण संगीत में लीन हरिण के शरीर को विंध देते हैं। उस भोले हरिण को क्या पता था कि वह स्वर-लहरी उससे प्राण को ले बैठेगी। आकाश में स्वच्छन्द मान करने वाला पक्षी दाने को देख कर धरती पर लौट आता है। आने के साथ ही वह जाल में फंस जाता है। दूसरी ओर विशाल-काय गजराज उस कल्पित हस्तिनी के मोह में दौडता है और गहरे गर्त में गिर जाता है, जहां पर सात दिन तक भूखा रहने पर उसके सुदृढ़ दंतशूल जिसके बल पर वह अपने यूथ का आधिपत्य करता था और मानव जिसे देख कर कांप उठता था वे ही दंत कर मानव द्वारा उखाड लिए जाते हैं। दूसरी ओर भोली मछली आटे की गोली खाने के लिए आती है। पर उसमें छिपा हुआ कांटा उसके कंठ को विध देता है। कहने का तात्पर्य यह है कि आत्मा का यह अनान ही समस्त विडंचना का मूल है। टीका:-अज्ञानवशान्मृगविहंगाः पक्षिणो मत्तवारणाश्च पाशध्यन्ते। मत्स्या आमिषेभ्यः सन्ति, प्रज्ञानं सुमहद् भयं भवति ।गतार्थः । जम्मे जरा य मञ्च य, सोको मागोवमाणणा। अण्णाणमूलं जीचाषा, संसारस्स य संतती ॥ ३ ॥ अर्थः -जन्म, जरा और मृत्यु, शोक, मान और अपमान सभी आत्मा के अज्ञान से ही पैदा हुए हैं । संसार की विष-वेल अज्ञान के जल से ही सींची गई है। गुजराती भाषान्तर: જીવને જન્મ, ઘડપણ, મરણ, શોક, માન અને અપમાન એ બધું આત્માના અજ્ઞાનને લીધે જ જન્મ પામ્યું છે. સંસારની ઝરી વેલ અજ્ઞાનના જળથી જ સીચવામાં આવી છે. संसारी जीवों के लिए अनिवार्य जन्म, जरा और मौत के दुःख अज्ञान के ही कारण पैदा होते हैं। अपने ही अज्ञान के कारण मानव ऐसी समस्या पैदा कर लेता है, फिर उसे शोक, मान और अपमान के जहरीले पूंट पीने पड़ते हैं। अन्नान
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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