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छत्तीसवां अध्ययन
अतर्षि अगली गाथा के द्वारा प्रस्तुत विषय को सुन्दर ढंग से रख रहे हैं।
टीका:- बलेबलं न क्षितं नावमन्तव्यं श्रोधास्तु बलं परं परमं । वह्नेरल्पा गतिः क्रोधानेरमिता । गतार्थ: । सका चण्ही निवारेतुं वारिणा जलितो व हि । हिजणाच कोवम्गी दुण्णिवारओ ॥ ४ ॥
अर्थ :- बाहर की जलती हुई आग पानी से बुझाई जा सकती है पर क्रोध की आग सभी समुद्रों के जल से भी बुझाई नहीं जा सकती ।
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गुजराती भाषान्तर:
અળતા અગ્નિનો ભડકો પાણીથી શમી (દરી) શકે છે. ગુ ક્રોધની જ્વાલા અધ્રાં સમુદ્રોના પાણીથી ખુઝવી શકાય નહી.
द्रव्य आग पर काबू पाना सरल है। पानी की एक बाल्टी उसे बुझा सकती है, किन्तु वह भाव अभि को जिसमें तन और मन दोनों जल रहे हैं उस आम में सारा परिवार झुलस रहा है, सारे समाज में उसकी चिनगारियां उद रही है। राष्ट्र क्या विश्व तक उस ज्वाला में धधक रहा है। यदि उस कोध की आग पर बाल्टीभर पानी डाल दिया जाय तो क्या परिणाम आयेगा उसका ? आप अधिक भड़क उठेगी।
एकं भवं दहे वही दहस्स वि सुहं भवे । इमं परं च कोवग्गी णिस्संकं दहते भवं ॥ ५ ॥
अर्थ :- अभि केवल एक भव को जलाती है और दग्ध व्यक्ति बाद में ठीक हो सकता है पर यह क्रोधाभि तो निःशंक होकर यह लोक और परलोक दोनों को जलाती है ।
गुजराती भाषान्तर:
આંચે ફક્ત એકજ ભવને બાળી શકે છે, અને દગ્ધ (દાઝી ગયેલ ) માણુસ પાછળથી સારો થઈ જાય છે; पशुधा तो भरेर या सोने अने परवड ( ना अव ) ने खाणी ( नाश उरी) नाणे छे.
अम्भि और क्रोधाग्नि की तुलना करते हुए अर्हत िनया तथ्य सामने रख रहे हैं। अभि केवल एक ही भव को जलाती है और जलनेवाला भी उपचार के द्वारा स्वस्थ होकर शान्ति का अनुभव करता है, किन्तु क्रोधामि तो न यहां शान्त होती है न वहां । इस जन्म की ज्वाला जन्म जन्म तक साथ जाती है ।
अर्थ देते हैं ।
अग्गणा तु इहं दहा संतिमिच्छति माण धा ।
गिणा तु दाणं दुक्खं संति पुणौ विहि ॥ ६ ॥
:- आग से जलनेवाला मानव शान्ति चाहता है पर कोभाभि से जले हुए पुनः उस दुःख को निमंत्रण
गुजराती भाषांतर :
અગ્નિથી દાઝેલો મહુસ શાંતિની અપેક્ષા કરે છે, પણ ક્રોધાગ્નિથી દાઝેલો. માણસ ફરી (દ્વેષ કરી ) તેજ દુઃખને નોતરું આપે છે.
आग से जला मरहम चाहता है और क्रोध से जला फिर उस ज्वाला के पास पहुंचता है। कितना अबोध है आत्मा । जिस चीज को उसने सौ सौ बार जो देखा उसकी असफलता पाकर पछताया फिर भी विश्वास उसी का करता है । जीवन में सौ सौ बार उसके क्रोध का उपयोग किया है पर कभी क्षमा का भी उपयोग करना नहीं चाहा । उसने क्षमा के गीत गाये हैं। क्षमा श्रमणों के जयनाद से आकाश गुंजाया है। क्षमा पर उसने बड़े बड़े भाषण दिये हैं। बड़े बड़े ग्रन्थ रचे हैं, पर जब कोई समस्या उलझी तो उसने क्षमा को दरवाजे से बाहर धकेल दिया और क्रोध को भीतर बुला लिया बाहर खड़ी क्षमा अपने साथी के व्यवहार पर सिसक रही हैं और को मुस्कुरा रहा है। वह बोल रहा है
मुझे लाख छुटकारा, बुराभला कहा, गालियां भी दीं, जीभर कर कोसा, पर अब तो तुम्हारे ऊपर मेरा शासन है । जब तक दिल में शैतानियत भरी है तब तक मन भर कोष का शासन रहेगा । इसीलिये तो मानव ने उसे ऐसा अपने सीने से लगा रखा कि उसे क्रोध छोड़ने की बात कही जाय तो लड़के भिडन को तैयार हो जायगा । आदमी
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