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________________ 7 इसि - भासियाई अर्थात् कोप पात्र किसी पुरुष के प्रति छोड़ा गया क्रोध मेरे और उसके लिये दुःखावह होता है । अतः हे मुनिगण | उत्पन्न होते हुये क्रोध का एकदम निग्रहीत कर लो। अथवा आते हुए कोध का निग्रह करना चाहिये । २३० प्रोफेसर शुचिंग लिखते हैं कि अतर्षि बता रहे हैं को मेरा और उसका दोनों का नाश करता है। यद्यपि इस श्लोक में तीन छडी विभक्तियां आई है, किन्तु यहाँ दीर्घ के स्थान पर एक सालवी और दो तिसरी विभक्तियाँ अपेक्षित हैं। गद्य के मूलपाठ की रचना भी ठीक नहीं है । " निगिणिस्सामि " अथवा निगिण्छामि के लिये कोवं दूसरी विभक्ति में आवश्यक है। कोबो अग्गी मो मच्चू विसं बाधी अरी रयो । जरा हाणी भयं सोगो, मोहं सलं पराजयो ॥ २ ॥ अर्थ :- को अभि है, अंधकार हैं, मृत्यु है, विष है, शत्रू, रज, व्याधि, जरा, हानि, भय, शोक, मोह, शल्य और पराजय है । गुजराती भाषान्तर: शेष व्यक्ति छे, धार ले, मृत्यु छे, कर छे, हुश्मन, २०४, रोग, चार्धस्य, हानि, लय, शो, भोड, शस्य અને પરાજય છે. कोध को चौदह उपमाओं से उपमित किया गया है। कोध में आग की ज्वाला । अंधकार की चिटबना है तो मौत की विभीषिका है। कोध स्वयं एक विष और व्याधि है। आत्मा का वह सब से बडा शत्रु । उसमें जरा की दुर्बलता है तो उसकी बहुत सी हानियां भी हैं। क्रोध में भय और शोक भी है। क्योंकि क्रोध के प्रारम्भ में मूर्खता है । अन्त में पश्चात्ताप है। भय और शोक अज्ञान के ही पुत्र है। कोष रजरूप है। वैज्ञानिकों ने खोज परिणामों में बताया है कि क्रोध के क्षणों में शरीर से तलवार और बछ आदि की आकृतिवाले शस्त्र निकलते हैं साथ ही कर्म रज को लाता है। सूक्ष्म दृष्टि से क्रोध स्वयं कर्म है और आपस में उसे भावकर्म कहा गया है। क्रोध में मोह भी काम करता है | मोह का तो वह पुत्र है। वह शल्य है। क्योंकि शल्य की भांति चुभता है। साथ ही वह जीवन की सबसे पराजय है। क्रोध की खुराक आत्मा का सात्विक बल । जब आदमी का बल समाप्त हो जाता है तो वह अपनी दुर्बलता को कोध के आवरण में दबाना चाहता है। पर यह पारदर्शी है । उरामै पराजय स्पष्ट प्रतिविम्बित होती है । "जरा हाणी" का पाठान्तर "जग हाणि " मिलता है । उसका अर्थ होगा क्रोध ने सारे विश्व को हानि पहुंचाई है । विश्व की आधी से अधिक समस्या कोध ने खड़ी की है। 1 वहिणो णो बलं छितं कोहमिस्स परं बलं । अप्पा गती तु वहिस्स, कोवग्गिस्स रमिता गती ॥ ३ ॥ अर्थ :- अति का मल महान है। पर क्रोधासि का बल उससे भी अधिक है। अभि की गति अल्प हैं पर क्रोध की गति अमर्यादित है । गुजराती भाषान्तर: – અગ્નિનું બવ મોટું છે, પણ તેનાથી ક્રોધના અગ્નિનો ભડકો ઘણોજ ભયંકર છે. અગ્નિની ગતિ સ્વરૂપ ( सीमित) छे, पशु होधनी गति तो अमर्यादित . प्रस्तुत गाथा में अभि से क्रोध की तुलना की गई है। मनुष्य आग से डरता है । उसे स्वप्न में भी कहा जाय आग में हाथ डाल दे तुझे चक्रवर्ती का पद मिलेगा किन्तु उसके लिये वह तैयार नहीं होगा, क्योंकि वह जानता है आग मुझे जला डालेगी। जितना विश्वास आग पर है उतना क्रोध पर नहीं है । अन्यथा मनुष्य अभि से भी अधिक कोध से बचता । अभि को सर्वभक्षी कहा जाता है फिर भी उसका बल सीमित है । पर क्रोध का बल तो उससे भी अधिक है । अभितो निकटवर्ती को ही जलाती है। जबकि क्रोधामि निकट और दूरवर्ती सबको जलाती है। अग्नि की गति सीमित है। जब कि क्रोध की गति असीम है। पानी के निकट पहुंचते ही आग की गति रुक जाएगी किन्तु क्रोध की आग पानी भी नहीं बुझा सकती । 1
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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