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________________ छत्तीसवां अध्ययन आवश्यकता यह है हम अपनी शान्ति उसके भीतर जगा दें। यदि दीपक अपने सामने 'कले अनंत अंधकार को देखकर स्वयं भी अंधकार रूप हो जाय फिर डरा दीपक की कीमत क्या है? उसका मूल्य वहीं है वह अंधकार में भी अपनी ज्योति को कायम रखता है । दूसरे को गुस्से में देखकर हमने अपनी शान्ति छोड़ दी तब फिर हमारी शान्ति का कोई मूल्य नहीं है। यदि हमारे पास शान्ति की सुपा है तो उसका उपयोग हम क्रोध के क्षगों में करें। मधुर एवं शान्त वचनों के द्वारा उसकी कोच की आग को शान्त कर सकें तभी हम उसके नीचे चिकित्सक हो सकेंगे । अन्यथा यदि उसकी अशान्ति हममें प्रवेश कर जाय तो यह जीवन की विडंबना होगी। यदि ज्वरमस्त रोगी को देखकर डॉक्टर को पचर चढ़ जाय तरतो हो चुका । अहंतर्षि इसी लिये प्रेरणा दे रहे हैं कि हम आत्म-निरीक्षण करें की आवेश के क्षणों में लिखे शब्दों के द्वारा उसकी ज्वाला को बढ़ाई है, या मिटे शब्दों के द्वारा आग में पानी का काम किया है। विचारशील तो यही चाहेगा कि गर्म वातावरण में भी मेरा दिल और दिमाग्त शान्त रहे और मैं दूसरों के गर्भ विभाग को ठंडा कर स। टीका:- भृशं उत्पत्तता क्रोधेनेति शेषः । उत्पतंत कंचित् प्रियेण प्रियवचनेम वक्ष्यामि कि शान्त पापमिति सान्त्वनं वक्ष्याम्युत पा संसति अशान्तं न पुरुषमिति शेषो वक्ष्यामि यथाह-"तुष-नुष कल्प"मिःसारजनेति । पुतत्त मुनेन गुज्यत इति भावः। अर्थात् प्रबल उत्पल होते हुए कोध से फुफकारते हुए किसी व्यक्ति को प्रिय से अर्थात् प्रिय व वनों से कहूंगा क्या पाप शान्त है इस प्रकार उसे सांत्वनाभरे शब्द कहंगा अथवा 'न शान्त' अर्थात उस अशान्त पुरुष को यह कहूंगा कि यह सुप समान निःसार है। ऐसा समझो अर्थात् यह मुनि नको योग्य नहीं ऐसा कहूंगा। टीकाकार कुछ भिन्न भिप्राय रखते हैं। प्रोफेरार शुचिंग लिखते है कषाय की थियरी में सैज्वलन क्रोध जो स्थान है वही यहां उत्पन शब्द का है। उग्रता सेोध प्रकट होता है किन्तु मैं उसके साथ प्रेम भरे शबद ही बोलूंगा । किन्तु शान्त पुरुष के लिये क्या कहना? जगार होगा नहीं। प्रत्तस्स मम य अन्नेसि मुक्को कोवो दुहावहो। तम्हा खल उप्पतंतं सहसा को गिगिण्हितब्बं ॥१॥ अर्थ-कोच-पात्र ( व्यक्ति) के इस प्रति छोड़ा गया कोष मेरे और उसके लिये दुःखरूप होता है इसलिये उत्पन्न होते हुए शोध को सहना ( जल्दी दी) रोक देना चाहिए। गुजराती भाषान्तर: ક્રોધ અમુક વ્યક્તિ પ્રત્યે થયો હોય તે તે માણસ માટે અને તેના તરફ ગુસ્સો કરનાર માટે ત્રાસદાયક બને છે, માટે કોધની ઉત્પત્તિના વખતેજ (સમય ગુમાવ્યા વગર) તેને અટકાવવા જોઈએ, कोधी व्यक्ति कोष के द्वारा प्रतिपक्षी को दुःख में डालना चाहता है। इसीलिये तो वह क्रोध का उपयोग करता है और ऐसे विष बुझे बाग जैसे तीखे शब्दों के द्वारा प्रतिपक्षी के हृदय को वींच देना चाहता है और जब वह तिलमिला उठता है तो उसके दिल में प्रसन्नता की लहर दौड़ पड़ती है, अपने प्रतिपक्षी के दुख में उसे आनंद मिलता है। किन्तु यह निरी भूल है कि कोच एक पक्ष को ही दुःखी करता है। वह दोनों को झुलसाता है। जिसके दिल में उसने प्रवेश किया है उसे भी वह चैन से नहीं बैठने देता। उसके मन में भी संकल्य-विकल्पों का जाल छागा रहता है। उसके मन की शान्ति मी लुप्त हो जाती है। पड़ौसी के झोपले में आग लगानेवाला मन में इठलाता है। आग की लपटों में उपका अहंकार हंसता है, किन्तु कभी उन्हीं लपटों में उसकी अपनी झोपड़ी के साथ अहंकार भी भस्म हो जाता है । इसीलिये अहंतर्षि साधक को प्रेरणा दे रहे हैं यह न समझो कि क्रोध की आंच तुम्हारे प्रतिपक्षी को ही हलमा के रह जाएगी यदि उल्टी हवा चली तो उसकी झोपड़ी बच जाएगी और तुम्हारा महत्व राख की देरी हो जायगा। अतः क्रोध को उसके उत्पत्ति केक्षण में ही रोक देना नाहिये, क्योंकि नन्हीं-सी निमारी उपेक्षित होकर ज्वाला का रूप ले सकती है। टीका:-मम चान्येषां च कोपः पात्र प्रति-कन्धित् पुरुष मुको दुःखावहो भवति । तस्मात् खलूरपनन्त सहसा कोएं निगृहन्तु मुनयः! यदि वा उत्पतन कोपो निगृहीलन्यः ॥
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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