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________________ अडतीसवाँ अध्ययन २५५ बाह्य या आन्तरिक कार्य सबके लिए साधनों का ठीक चुनाव करना होगा । साधन अनुचित है तो साध्य गठबया जाएगा । सीधी सी बात है। घड़ा मिट्टी से बन सकता है, धागों से नहीं, क्योंकि घट निर्माण के लिए धागे अनुचित कारण हैं । मोक्ष प्राप्ति के लिये समुचित कारण अपनाने होंगे। मोक्ष प्राप्ति का उद्देश्य बना लेने पर भी यदि उसके प्रसाधन अयोग्य हैं तो भी विडम्बना होगी। मोक्ष के पागलों ने काशी में सिर कटवा लिये पर क्या उन्हें मोक्ष मिल गया! 1 जब तक पुद्गल संसक्ति और विभाव दशा की आसक्ति समाप्त नहीं होती तब तक मुक्ति केवल कल्पना है। उसके लिये सम्यगदर्शन सम्यग्ज्ञान औद सम्यक् चारित्र ही सुयोग्य प्रसाधन है। अतः साध्य की सिद्धि के लिए योग्य साधनों की ठीक ठीक पहवान आवश्यक है। टीकाः---लौकिककार्यनिवृत्तिनयोजके कार्यकारणे मादेये ते एव मोक्षनिर्वृतिप्रयोजके विशेषतो बिशेये । गताः । परिवारे व वेसे य भावितं तु विभायए । परिवारे यि गंभीरे ण राया णीलजंधुओ ॥ २५ ॥ अर्थ:-परिवार में हो या मुनि वेश में भावित आत्मा ही विशिष्ट भाव दशा पा सकता है । विशाल परिवार में होने पर भी नील जम्बूक राजा नहीं हो सकता। गुजराती भाषान्तर: પોતાના પરિવારમાં ગૃહસ્થ હોય કે મુનિષમાં હોય તે પણ ભાવિત આત્મા જ વિશિષ્ટ ભાવદશા મેળવી શકે છે. મોટા પરિવારમાં રહેનાર નીલ અંબૂક (વાદળી રંગમાં રંગાયેલી શિયાળ) રાજા બની શક્તો નથી. कोई भी व्यक्ति परिवार में रहता है या गुनिवेश में । यह प्रश्न उतना महत्व नहीं रखता जितना कि उसका आत्मविकास । यदि वेश बदलकर भी गान नहीं बदला तो उस वेश बदलने का कोई अर्थ नहीं है। परिवार में भी ऐसी बहुत सी आत्माएं मिल आवेगी, जोकि गंभीर साधना कर रही है। जब कि मुनिवेश में भी विपथगामी आत्माएं मिल सकती है, अतः वेश को संयम का प्रतीक मान लेना अपने आप में एक गंभीर भूल है । इसीलिये महा श्रमण भ. महावीर पाबापुरी की अपनी अन्तिम देशना में इस सत्य का उद्घाटन करते हुए कहा था-कतिपय साधुओं से गृहस्थों का शील और संयम श्रेष्ठ हो सकता है। फिर भी हमें यह भी न भूलना होगा कि समस्त गृहस्थों से साधुओं का संयम श्रेष्ठ होता। विशाल परिवार के बीच भी ऐसी आत्माएं मिल सकेंगी जिनका जीवन उनसे भी श्रेष्ठ है कि जिन्हें कि हमारी आंखें पवित्र देखती हैं। दूसरी ओर विशाल शिष्य-परिवार के द्वारा किसी की साधना को मापना भी गलत होगा । आज विशाम शिध्य-परिवार को देखकर उन्हें विशिष्ट पद दिये जाते हैं । आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने कहा तत्व विनिश्चय और अध्यात्ल साधना के अभाव में यदि शिष्य-समुदाय बढ़ता है तो वह साधक को सिद्धान्त का अनुगामी नहीं, प्रतिगामी अनाता है। तः पारिवारिक विशालता किसी को महत्वपूर्ण पद बिठा नहीं सकती। फिर आज के युग में जबकि बढ़ती हुई संख्या एक अभिशाप मानी जा रही है। अतिर्षि कहते है परिवार से घिरा हुआ और रंगा हुआ शुमाल राजा नहीं माना जा सकता। यह एक लोकप्रसिद्ध वार्ता है। एक शगाल एक वार नगर में आया रेग के बर्तन में मिल गया। अपने रंग रूप को देखकर उसने अपने आपको वन का राजा घोषित किया । वनपशुओं की विशाल सभा जुडाकर बैठा भी किन्तु उसकी शाही शान उसी क्षण मिट्टी में गई जबकि वनराज आ पहुंचा। अतः साधना के पथ में बढ़ने के लिये कपड़े नहीं आत्मा को भदलने की आवश्यकता है। यदि आत्मस्थिति बदल चुकी है और कपड़े न भी मदले तब भी वे कपड़े आपकी मुक्ति में बाधक नहीं हो सकते । गृहस्थलिंग सिद्धा को खीकार कर जनदर्शन ने इस सस्य का उद्घोष किया था। माता मरदेवी और उनके पति चक्रवर्ती भरत इस कथन के ज्वलत प्रमाण हैं। १ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः। -तत्वार्थ: अ०१ सू०१. २ संति पगेहि भिक्खुहि गारस्था संजमुत्तरा । गारत्येहि सन्देहिं साहयो संगमुजरा || -अप्सरा० अ०५ गा० २०, ३ जह जह बहुस्सुओ सम्पनीय सिरसगण संपरिबुद्धो म । अविणिच्छिो य सनग्ये तह तह सिवन्त परिणीओ।। -सन्मतिप्रकरण ३-६६,
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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