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इसि-भासियाई गुजराती भाषान्तर:--
મુનિના વેવ અને રૂપને ખાસ વિચાર કરવો આવશ્યક છે. પારધી શું કારણ ગાય છે અને પક્ષીઓ શાને માટે છાનામાના છે?
साधक देखे-मनि के वेश और उसकेप अर्थात् मुनि भाव में कहां तक साहचर्य है। वह केवल स्थूल द्रष्य बनकर ऊपरी गज से हीन मापे । उसे भीतर की गहराइयाँ तक प्रवेश करना चाहिए। वह बेश का पूजक बनकर न रह जाए। वह यह भी देख्ने मुनि के वेश के साथ मुनिच भी है या नहीं 1 कोरी वेश पूजा अनाचार की परंपरा बढ़ाती है । वैयक्तिक राम और सांप्रदायिक अभिनिवेश बुद्धि वेश-पूजा को महत्व देती है । मेरी परंपरा और मेरे संप्रदाय का वेश जिसने पहन लिया है यह मेरे लिये पूज्य है। इसका अर्थ यह हुआ मेरा पीतल भी सोना है, और दूसरे का सोना भी पीतल है। धर्म की ओट में जब यह संप्रदायवाद खेलता है तन धर्म का रस सूख जाता है, उसमें दरारें पड़ती है ये दरारें और टुकड़े ही संप्रदाय हैं। यह सांप्रदायिक बुद्धि ध्यक्ति और वेष, पूजा को प्रोत्साहन देती है, गुण-पूजा को दरवाजे से बाहर धकेल देती है।
जनदर्शन का मूल स्वर मुज-पूजा हो रहा है,श-दूजा की कमीजसने अपना लक्ष्य नहीं बनायान उसने कभी आपको सांप्रदायिक दीवारों में केद ही किया है। पूर्ववर्ती आचार्यों ने यहाँ तक घोषणा की थी कि मुझे भगवान महावीर के प्रति आग्रह नहीं है।
और अन्य दार्शनिकों के प्रति मेरे मन में द्वेष भाद नहीं है। जिसके विचार तर्क की तुला पर ठीक उत्तरते हैं उन्हें ही मेरी बुद्धि ग्रहण करेगी।
अहतर्षि वेष-प्रतिमा के स्थान पर गुण-प्रतिष्ठा को विकसित करने की प्रेरणा दे रहे हैं । उसके लिये सुन्दर हपक दे रहे है। वह आकाश में उड़नेवाली चिचिया भी व्यक्ति के बाा को नहीं अन्तर को जानती है शिकारी जब गाता है तब वह चुप हो जाती है। वह शिकारी के संगीत पर मुग्ध नहीं होती, किन्तु उसके हिंसात्मक भावनाओं को परस्वती है। तो श्रावक मुनि के वेश और माझ साधना को न देग्ने, मैले वस्त्रों की आचार का प्रतीक न समझे, न मधुर संगीत को आत्मा की स्वर लहरी न मान वे। कभी कभी मैले कपड़ों में जीवन का मैल छुपता है तो कभी भीषण बाह्याचार के नीचे अत्याचार कसकता है। अतः यह वेष नहीं साधना को देखे । रूप नहीं, गुण का पारखी बने ।
टीका:-प्रस्छादनं येष रूपं लिंग निश्चयमेव विभावयेत् । किमर्थ गायति ख्याधस्तूष्णीका भवन्ति पक्षिणः? गायतोऽपि छ्याधस्य हननाभिन्नार्य वेषाच लिंगाचानुमान्ति विहगा इति भावः । गतार्थः । “विशेष=नेष और लिंग से पक्षीगण गाते हुए शिकारी के मारने की भावना को समझ लेते हैं।"
कजणिचत्तिपाओग्गं आदेयं कजकारणं ।
मोक्खपिणव्यतिपाओग्गं, विण्णेयं तु विसेसओ ॥२४॥ अर्थ:-किसी कार्य की रचना के लिये उचित कार्य कारण अपेक्षित है। किन्तु मोक्ष की निवृत्ति के रचना के लिये विशिष्ट कार्य कारण अपेक्षित है। गुजराती भाषान्तर:
કોઈ પણ કાર્યોની રચના માટે યોગ્ય કાર્યકારણની અપેક્ષા હોય છે, પરંતુ મોક્ષની રચના માટે ખાસ કારણુની આવશ્યકતા રહે છે.
कार्य की सफलता के लिये हमें कार्य कारण भाव को समझना चाहिए। यदि कारण निर्बल है तो कार्य भी निर्बल रहेगा। क्योंकि कार्य की प्रसवभूमि कारण है । यदि तन्तु-धागे स्वराब हैं तो कपडा सुन्दर नहीं बन सकता ।
एक तर्क है-साध्य ठीक होना चाहिए, साधन फिर कैसे मी हो तो चलेगा। किन्तु यह तर्क लचीला है। यदि कार्य और कारण दो भिन्न वस्तुएं है तब ठीक है; अन्यथा कार्य कारणों का परिपक्क रूप है तब साधनों को तुच्छ गिननेवालों की मिट्टी खिसक जाएगी। यदि इंट के प्रति उपेक्षा की गई तो भादन की जलधारा मकान को ढेर कर देगी। क्योंकि इंटों ज्यवस्थित समूह ही तो मकान है।
गुणाः पूजास्थान गुणिपु नच सिंग नच चयः । -उत्तररामचरित. २ पक्षपातो न मे दीरे, नपः कपिलादिषु । । युक्तिमद् वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ।।
हरिभद्र सूरि.