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अउतीसवाँ अध्ययन
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प्रज्ञाशील साधक संसार की वासना से विरक्त होता है तब उसे अन्नर की उत्क्रान्ति करना आवश्यक है 1 मुमित्व की साधना के लिये केवल बाह्य वेश आदि का परिवर्तन ही नहीं हृदय का परिवर्तन भी आवश्यक है। आज वेश की पूजा हो रही है। मुनिवेश को मुनिल समझ लिया गया है। वेश अपने आप में जड है चैतन्य का पुजारी बेश को झुकता है तो उसकी चतन्य पूजा की सबसे बड़ी पराजय है । वेश में मुनिव नहीं वसता। वेश मुनि-जीवन का उपजीवन है, वह साधन है, जनता के विश्वास की आधार भूमि है । और यहीं तक वेश उपयोगी है, किन्तु उसे ऊपर जलाकर पूजा की वस्नु समस लेना बहुत बड़ी श्रान्ति है। मुनिवेश में रहा हुआ साधक वेश की रक्षा के साथ अपने अन्नर मुनि जीवन की रक्षा के लिये
और सदेव जागृत रहे । उसकी वृत्तियाँ और प्रवृत्तियाँ मुनि भाव को क्षत विक्षत हो सके इसके लिये वह संमम के विरुद्ध किसी भी विचार और व्यवहार को वह प्रश्रय न दे।।
टीकाः- वेशपच्छादनसंबद्धो रजोइरणादिलिंगसहितो नवतत्वरतो संपद्धं तत्वविरुद्धं, पुरुष सदा वारयेत् नाल भवति धारयितुं बुद्धिमान् नानारतिप्रयोजकम् ।
अर्थात-वैशपच्छादन चहर आदि से यक रजोहरणादि चिन्हों से युक्त नव तत्व का , विरुद्ध गानी पुरुष से सदा दूर रहे । नानाविध अरतिः प्रयोजक = अर्थात् मानसिक शान्ति को भंग करनेवालों का साथ करना योग्य नहीं होता । अथवा संसार से अगति प्रयोजन वखादि का धारण करना ही पर्याप्त नहीं है, उसके लिये संयम साधना मी चाहिये।
यंभचारी जति कुद्धो वजेज मोहदीवर्ण ।
__ण मूढस्स तु वाहस्स मिगे अप्पेति सायकं ।। २२॥ अर्थः- ब्रह्मचारी यति कुद्ध होकर भी मोहोद्दीपक वस्तुओं का परित्याग करे। क्योंकि मूर्ख शिकारी के बाण मृगको वेष नहीं सकते। गुजराती भाषांतरः
બ્રહ્મચારી થતિ ક્રોધાધીન થયા પછી પણ મોહને ઉદ્દીપન કરે એવી વસ્તુઓનો ત્યાગ કરે. કેમ કે મૂર્ખ (મહુમાં પડેલા) શિખારીની બાણુ મૃગને વીધી નહી શકે.
अाचारी मुनि कभी कुपित न हो। क्योंकि क्रोध आत्मा की विभाव-परिणति है, फिर भी यदि क्रोध आभी जाए तब भी वह मोहोद्दीपक कार्य कभी न करे । कोध में यद्यपि साधक अपनी साधना को भूल जाता है फिर ब्रह्मचारी के लिये निर्देश है कि वह मोह से सदा बबता रहे । अथवा इसका एक रूप यह भी हो सकता है कि ब्रह्मचारी क्रोध में मोहोहोषक वस्तुओं का परित्याग करे, किन्तु आवेश के क्षणों में किया गया त्याम अप्रशस्त है, क्रोध में आकर मनुष्य भोजन का परित्याग कर देता है, किन्तु वह उपवास ज्ञान-प्रेरित नहीं है, अतः ज्ञानियों को वह स्वीकार नहीं है।
फिर भी साधक इतना सावधान तो रहे कि क्रोध के पागलपन में कहीं मोह प्रहार न करदे, क्योंकि क्रोध क्षणिक होता है, किन्तु भोह का प्रहार स्थायी होता है। फिर मोड़ के कीचड़ में फंसा साधक अपनी साधना को उसी प्रकार व्यर्थ नष्ट कर देता है जैसे कि भूखं शिकारी अपने वाणों को। वह अपने लक्ष्य को वेध नहीं सकता। इसी प्रकार मोदशील साधक की साधना निर्माण के लक्ष्य से भ्रष्ट हो जाती है।
टीकाः-- सर्वदा न कुष्येन्मुनियंदि तु केनचित्कारणेन ब्रह्मचारी पतिः क्रुद्धः संज्वलेत तदात्मनो मोहदीपन वर्जयेत् मूउस हि व्याधस्य सायको मृगान् न विध्यति एवं मूछो मुनिन मवेज्ञानभाक् । गताथैः ।
पेच्छाणं चेष रूवं च णिच्छमि विभावए ।
किमत्थं गायते वाहो तुहिका वावि पश्खिता ।। २३ ।। अर्थः-मुनि देश और रूप का निश्चय से विचार करे । व्याध किस लिये गाता है और पक्षी चुप क्यों है ?
केली गौतम चर्चा में मनामुनि केशीकुमार ने देश के प्रश्न को उठाया तब महान साथय गौतम उसका इसी रूप में समाधान करते है:पचयस्थ च लोगरस पाणा विह विगप्पण, लताध गणत्वं न लोगे लिंगमओयर्ण ।
उत्तरा० अ० २३ गा० ३२.. २ पत्भाणं.