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________________ २५६ इसि-भासियाई टीकाः- परिवारेण च घेषेण च यद्भावितं सन् विभावयेन च ताम्यां यञ्चयेत परिवारेणाऽपि गंभीरेण परिवृतो नीलजम्बका कथाप्रसिद्धो न राजाऽभवरष्टापदानामवंचनीयत्वात् । गतार्थः । भत्थादाई जणं जाणे णाणा-चित्ताणुभासकं । अत्थादाईण वीसंगे पासंतस्स अत्थसंततिं ।। २६ ॥ अर्थ:-अर्थ (धन) का लोभी व्यक्ति नानाविध रूप में चित्तहारी मधुरभाषा-भाषी समझना चाहिये । अथना ज्यादा मधुरभाषी को अर्थ का इच्छुक समझना चाहिए और उगकी अर्थ-परंपरा को देखकर लोभी व्यक्ति से दूर रहना ही श्रेष्ठ है। गुजराती भाषान्तर: અર્થ એટલે દ્રવ્યને લોભી માણસ અનેક રૂપમેં મીઠા મીઠા શબ્દોથી આપણા તરફ બીજાનું અતઃકરણ ખેચી લઈ લે છે. બીજા શબ્દોમાં એમ કહી શકાય કે મીઠા શબ્દો બેલનારો માણસ ધનને અભિલાષી હોય છે, તેથી આવા માણસથી છેટે રહેવું જ એ પ્રશસ્ત છે. जिसके मन में संपत्ति की भूख लगी है वह किसी से बात करता है तो उसका बोलने की शैली इतनी मीठी होगी कि वाणी कला के द्वारा वह उसके हृदय में प्रवेश कर जाता है और अपनी इच्छित वस्तु निकलवा लेता है। दूसरी ओर यह भी ध्यान रखना चाहिए जो आपसे बहुत मीठी बातें कर रहा है उसकी मीठी बातें भी कोई अर्थ प्रती हैं । किसी प्रयोजन से ही आपसे इसना मीठा बोल रहा है। अतः लोभी के दिल को समझना चाहिये उसकी अर्थ पिपासा को देखना चाहिये । उसे अर्थ नहीं, अर्थ संतति चाहिये, अर्थात यदि जसका न चले तो अपनी पीलियों के लिये भी संपत्ति माग ले, अतः उसके मन की विशाल तृष्णा की पूर्ति करना कठिन है। एक विचारक ने ठीक कहा है-Apoor man wants some thing, scorentous mutn all things. गरीब थोड़े से संतुष्ट हो सकता है जबकि अमीर की मांग सदैव ज्यादा होगी। अतः अतर्षि कहते हैं तृष्णालू व्यक्तिसे सदैव दूर रहो। "पाखेतरस" का पाठान्तर दासंतस्स । उसका अर्थ यह होगा कि जो लोभी का संग नहीं करता अर्थ संतति उसके लिये दासवत् रहेगी । लक्ष्मी छाया-सी है उसके पीछे दौड़ेंगे वह आगे दौरेमी और यदि आपने उससे मुंह मोड़ लिया फिर यह आपके पीछे दौड़ेगी। आचार्य मानतुंग आदिनाथ स्तोत्र की परिसमाप्ति पर एक मार्मिक उक्ति कह गये हैं-प्रभो ! जिसने आपके गुण रूप पुष्पों से प्रथित यह स्तोत्र रूप माला जो पहनेगा लक्ष्मी उसके पास अरबस चली आएंगी। टीका-अर्थाशमिनमर्थलोभिनं जनं जानीयात् नानाचित्तानुभाषकमन्यमानानुगामिनम्, तस्माद् अर्थ-संतात 'निरन्तरार्थलोभं पश्यतः श्रेयान् भवत्यर्थादायिभिर्विसंगो वियोगः । भतार्थः । उंभ-कप्पं कत्तिसम्म णिकछयम्मि विभावर। णिखिलामोसा कारितु उवचारम्मि परिनछती ॥ २७ ॥ अर्थ:- दम्भपूर्ण आचरण निश्चय में सिंह के चर्म से आवृत शुपालवत् समझना चाहिये । संपूर्ण रूप से असत्या. चरण करनेवाला उपचार से परखा जाता है। गुजराती भाषान्तर: દંભથી પૂર્ણ એવું આચરણ સિંહના આમડામાં છુપાએલ શિયાળના જેવું છે, એમ સમઝવું. હરએક રીતનું બનાવટ આચરણ કરનારા માણસની ઓળખાણ તેના આચાર-વિચાર તેમજ સંભાષણથી કરી શકાય છે. . जिसके अन्तर और बार दोनों में वैषम्य है ऐसा दम्भी साधक वह उस शृगाल जैसा है जो सिंह की खाल में घूमता है और पशुओं का राजा होने का स्वप्न देखता है। किन्तु जिस क्षण वह कार्य करता है या बोलता है तमी उसकी परीक्षा हो जाती है। मुनि के वेश में घूमनेवाले मिथ्याचारी व्यक्ति जनता के समक्ष अपने भापको महान पहुंचे हुए १ दासंतस्स. २ स्तोत्रम सब जिनेन्द्र गुणौनियाम् माला मया चिरवर्णविचित्र पुष्पाम् । धत्ते जनो इह कंठगतामजन सं मानतुनमवशा समुपैति लक्ष्मी: 11 भक्तामरस्तोत्र कोक० ४८.
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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