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________________ अडतीसवाँ अध्ययन सन्तसिद्ध करना चाहता है । मैले वस्त्र, वाह्य क्रियाकाण्ड और दूसरों को शिथिलाचारी बताना ये हैं। उनके प्रसाधन, जिनके द्वारा वे अपने आपको महान आचारशील मुनि सिद्ध करते हैं और भोली स्थूलदशी जनता उन्हें उस रूप में मान भी लेती है, किन्तु जो उनके मीतर उतरता है उसे नहा कुछ दूसरा रूप दिखाई देता है और दम्भ के आधार पर खा किया गया मचल ढेर हो जाता है। टीका:-- दम्भ कल्प कृत्तिसमं कृत्वा जम्बूकसमानं निश्चयेन विभावयेत् निखिलं राजप्रतापस्यामोषं फत्वोपचारे वृतो परीक्ष्यते विज्ञायते । गताः । सन्यभावे दुबल जाणे णाणा-वण्णाणुभास । पुप्फा-दाणे सुणदा वा पधकारधरं गता ॥ २८ ॥ अर्थ-मनुष्य का समाव बहुत दुर्बल होता है । वह अनेक वर्ण ( रूप ) का आभास देता है । पुष्प को लेने के लिये सुनंदा प्लवकार ( नाव बनानेवाले) के घर गई । गुजराती भाषांतर: માણસનો સ્વભાવ ખરેખર ઘણુંજ નબળો હોય છે. તેથી અનેક વર્ષો (રૂપ)ના આભાસ થાય છે, સુનંદા ફૂલો લેવા માટે હોડી બનાવનારને ઘેરે ગઈ. मनुष्य का स्वभाव बड़ा विचित्र होता है। अभी वह सुन्दर रूप में है, किन्तु अगले ही क्षण उनका क्या हप होगा कुछ कहा नहीं जान पन्त गरारी केला कल सती भी हो सकती है ! । नगरवधू कोशा के रूप पाश में बंधे बिलासी कुमार स्थूलभद्र को देखकर कौन कह सकता था कि यह एक दिन काम-विजेता महान सन्त स्थूलिभद्र बनेगा और यह भोग की प्रतिभा के अपने पूरे सौन्दर्य के साथ भी उसे अपने रूप जाल में फंसा नहीं सकेगी : । विराग का पथिक भोग को त्याग की ओर खीच सकेगा । सती के रूप में पूजे जानेवाली नारिया अपने पूर्व जन्मों में किस रूप में रहीं होगी कौन कह सकता है। इसी लिये जनदर्शन कहता है किसी के वर्तमान रूप को देखकर उसके जीवन का फैराला न हो । उस पर घृणा न बरसाओ। संभव है एक दिन चे महान खेत हो सकते हैं और उनके आलोचक उनसे भी नीची भूमि पर जा सकते हैं जिनकी कि आज वे आलोचना कर रहे हैं। दुःख-विपाक की दुःखभरी कहानियां अपने पास एक सत्य रखती हैं। तो भगवती सूत्र में वर्णित गौशालक की कहानी भी एक तथ्य रखती है । भगवान महावीर गणधर देव गौतम प्रभु के समक्ष उन आत्माओं के जीवन पर्द उठाते जाते हैं, उसमें नै दृश्य भी आते हैं जबकि उनके जीवन की काली कहानियों को देखकर उन परिजन और प्रिंय भी घृणा से मुंह फेर लेते हैं। मारकाट हत्याभरा जीवन देखकर ऐसा लगता है इनका जीवन सूना रेगिस्तान है। जहां प्रेम कोमलता और करुणा का छोटा वृक्ष भी नहीं है, किन्तु दृश्य बदलते है और आखिरी पर्दा हटता है तो वह रूप सामने आता हैं कि हमारी अपनी आंखों पर हमें विश्वास नहीं होता ।। क्या यह वही है जो एक दिन बिना प्रयोजन के प्राणियों को मौत के घाट उतार देता था। आज उसका प्राण घातक व्यक्ति उसके सामने उपस्थित है। वह जानता भी है यह मेरे प्राणों की इत्या करने आया है। फिर भी मन के एक कोने में बैर और द्वेष की चिनगारी नहीं निकलती। देखते देखते कैवल्य की अनंत ज्योति से थे जगमगा उठते हैं। जिनके लिये मानव भी धृपा से मुंह फेर लेते थे, आज उन्हीं के लिये देवगण दौड़े आ रहे हैं । अाकाश में देव दुंदुभियां गगहाती हैं । अतः व्यक्ति कम क्रिस क्षण बदल जाएगा कह नहीं सकते। अथवा स्वभाव से दुबेले प्राणी अनेक रूप में बोलता है उसकी मनःस्थिता सम नहीं पड़ती, कभी वह किसी यान को स्वीकार करता है तो दूसरे ही क्षण इन्कार भी कर देता है । इस तथ्य की पुष्टि के लिये अतिर्षि ने सुनन्दा की कहानी दी है जो पुष्प लेने के लिये नौका बनानेवाले के घर जाती है, किन्तु वह प्राचीन कथा अज्ञात है। टीकाः- स्वभावे दुर्यले जानीयात् नानावर्णानुभाषक विविधजात्यनुकारिणम् , यथा सुनन्दा पुष्पाऽऽदाने सव-कारगृहं गता । अस्य तु श्लोकस्वार्थः कथाया अज्ञातवादस्पष्ट एव । गतार्थः । विशेष प्रस्तुत श्लोक के उत्तरार्ध में कथा का संकेत है, किन्तु वह अज्ञात है । अतः जतरार्ध स्पष्ट नहीं हो सका। ३३
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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