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________________ २५८ इसि-भासिया दवे खेत्ते य काले य सव्वभावे य सम्वधा। सम्बेसि लिंगजीवाणं भावणं तु विहायए ॥ २९ ॥ अर्थ :-द्रव्य, क्षेत्र और काल सभी भावों और सभी लिंगों के द्वारा रहे हुए जीवों की भावना को समझना चाहिए । गुजराती भाषान्तर: દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર અને કાળ બધા ભાવ અને બધા લિંગો દ્વારા રહેનારા જીવોની ભાવનાને સમજવા જોઈએ. प्रस्तुत अध्याय का उपसंहार करते हुए अर्हतर्षि बना रहे हैं, इस विराट विश्व में अनंत अनंत आत्माएं हैं और सबका वध्य, क्षेत्र काल भाव लिंग समी पृथक् हैं और सबकी भावनाएं पृथक हैं, अतः साधक विवेकपूर्वक सवको समझने की चेष्टा करे। हर व्यक्ति की अपनी परिस्थिति भिन्न होती है। हर व्यक्ति की भावनाएं पृथक् होती हैं । सबकी शक्ति समान नहीं होती। अतः सबको एक ही गज से नहीं नापना चाहिए। दो व्यक्ति एक समान अपराध करते हैं, फिर भी दोनों को समान दंड नहीं दिया जा सकता। क्योंकि दोनों की परिस्थिति पृथक् पृथक् होती है। एक भूक से पीड़ित होकर चोरी करता है। दूसरा पड़ोसी की संपत्ति देखकर जलता है। उसे भिखारी बनाने के लिये चोरी करता है। पहला पेट भरने के लिये चोरी करता है। दूसरा पेटी भरने के लिए । एकके पास तन की भूमा समस्या है तो दूसरे के पास मन की भूख है। आगम में भी अपराधों की दो गिर गई गई..पत सो ईमान के पोषण लिये लोगों का सेवन करता है, दूसरा संयम साधना के कठिन स्थानों को पार करने के लिए दोष सेवन करता है। ये दोनों दोष विधियों दर्पिका और कल्पिका कही जाती हैं। दोनों के बीच भावनाओं का बहुत बड़ा विभेद है । अतः दोनों की प्रायश्चित्त विधि में भी विमेद है। . कोई अपराधी पकड़ा जाता है । कानून उसका प्रमाण मांगता है, अपराध की स्वीकृति मिलने पर बह दंड दे देता है। किन्तु वह यह नहीं देखेगा कि इसने वह अपराध क्यों किया है। इसी लिये तो कहा जाता है 'कानून अंधा होता है। विचारक के पास खुली आंखें हैं वह देखता है। अपराध हुआ है किन्तु साथ ही वह इसकी पार्वभूमि भी देखना चाहेगा कि किन परिस्थितियों से विवश होकर इसने अपराध किया है। उसके सामने दूसरा विकल्प था या नहीं ? । यदि नहीं था और इसने दोष का सेवन किया है तो आसक भाव से किया है या अनासक भाव से । जितना आवश्यक था उतना ही क्रिया है या उससे ज्यादा या क्रम? | विचारक व्यक्ति और उसकी परिस्थितियां और उसकी भावनाओं को तोलता है और सभी निर्णय देता है। ___अहतर्षि कह रहे हैं किसी भी व्यक्ति के लिये अच्छा या बुरा निर्णय न दो। उसकी स्थिति भावनाएँ सबका अवलोकन करो। टीका:-द्रव्ये क्षेत्रे च काले च सर्वभावे च सर्वथा सर्वेषां लिंगवतां जीवानो भावना विभावयेत् । गतार्थः । एवं से सिद्ध बुद्धेः ॥ गतार्थः ॥ इइ साइपुत्ति मामज्झयणं । इति सातिपुत्र अर्हतर्षिभाषितम ष्टाविंशतितममध्ययनम् ॥
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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