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________________ संजय अहर्षि प्रोन्न । उनचालीसवा अध्ययन मनुष्य हजार बार 'ही' कहता है तो उसे एक बार 'ना' कहना भी सीखना चाहिये । वह पाप के लिए इन्कार कर दे। जब कभी भन अशुभ की ओर जाए उसे रोक दे । मानव पाप से अपने को बचाता है तो वह इन्कार उसे हजार आपतियों से बचाता है। पाप की प्रसवभुमि मानव का मन है। पहले वहीं वह जन्म लेता है तब वाणी उसे बाहर व्यक्त करती है और देह उसको क्रियात्मक रूप देता है। पाप क्या है ? कुछ विचारक कहते हैं-'मनुष्य परिस्थितियों का दाम है, अतः परिस्थिति से प्रेरित ही जो कार्य करता है। दुनियो उसे अपने सांचे में ढल कर पाप पुण्य की संज्ञा देती है। पर यह तर्क की कसोटी पर ठीक नहीं उतरता । यदि मनुष्य परिस्थितियों का खिलौना मात्र है तो उसका अपना अस्तित्व ही क्या रहा? मनुष्य परिस्थितियों का दास नहीं, उसका विधाता है जब वह शुभ संकल्प लेकर चलता है तब उसकी प्रेषित भावधारा पुण्य के परमाणुओं को आकर्षित करती है; वही पुण्य है और भावधारा अशुभ की ओर बहती है तब अशुभ अध्यवसाय पाप के परमाणुओं को आकर्षित करते वही पाप है। खामी रामतीर्थ ने ठीक कहा है- कोई भी कर्म अपने आपमें पुण्य नहीं है, बिन्दु या शून्य का स्वतः कोई मूल्य नहीं होता । व्यक्ति के मन की छाया उस पर गिरती है उसी रूप में बह ढल जाता है। शुभ धारा उसे शुभ की ओर मोड़ देती है और तभी बढ़ता है जब कि मन में पाप होता है । बालक युवाते वृन्द के निकट खेलकर भी निष्पाप रहता है। प्रस्तुत अध्ययन में बताया गया है पाप क्या है और उससे मुक्त कसे हो सकते हैं। जे इमं पावकं कम्मं व कुजाण कारवे । देचा विणर्मसंति धितिम दित्ततेजसं ॥३॥ अर्थ:- जो व्यक्ति इस पाप कर्म को नहीं करता है और दूसरों से नहीं करवाता है उस धृतिमान वीस तेजवी को देवता भी नमस्कार करते हैं। गुजराती भाषान्तर: જે માણસ આ પાપ કર્મને કરતો નથી અને બીજને પાસેથી પણ કરાવતા નથી તેવા ધર્યશાલી, દીપ, અને તેજસ્વીને દેવતાઓ પણ નમસ્કાર કરે છે. साबक पापों से दूर रहे । न स्वयं पाप परिणति में लिप्त हो न अन्य व्यक्ति को उस ओर प्रेरित ही करे । ऐसा निष्पाप साधक दिव्य तेज से आलोकित रहता है। अहिंसा और करुणा की सौम्य भावधारा उसके मानन पर अठखेलियां करती है। इसीलिये देवगण भी उसके चरणों में झुकते हैं। यपि मौतिक वैभव में देव-सृष्टि मानव की अपेक्षा विशिष्ट है, पर आध्यात्मिक क्षेत्र में तो मानव से बहत पीछे हैं। संगमर्मर का फर्श खेत की काली मिट्टी की अपेक्षा अधिक मुरम्य है और वह मन को मोह.भी लेता है पर जीवन के लिये तो संगमर्मर के सुरम्य भवनों से खेत की काली मिट्टी ही अधिक उपयोगी है, क्योंकि एक दाने को हजार गुणित कर मानव को धान्य राशि का उपाहार देने का काम काली मिट्टी ही करती है । सर्वार्थ सिद्ध के विमानवासी देव तेतीस सागर पर्यन्त प्रयत्न करें तब भी केवलज्ञान नहीं पा सकते; जबकि मानव का पुरुषार्थ सही दिशा में गति करे तो अस्तालीस मिनिट में केवलज्ञान पा सकता है। भौतिक वैभव की दृष्टि से महान देवगण भी आध्यात्मिक वैभवशाली मानव के चरणों में झुकता है। टीका:-- य इदं पापं कर्म न कुर्यात् न कारयेद्, देव अपि तं नमस्यन्ति धृतिमहीलतेजसम् । गतार्थः । जे गरे कुव्वती पावं अंधकार मह करे। अणवजं पंडिते किच्चा आदिच्चे व पभासती ॥ २ ॥ अर्थ:--जो मानद पाप कर्म करता है वह अंधकार फैलाता है। जबकि पंडित पुरुष अनक्य कर्म करते सूर्य की भांति प्रकाशित होता है।
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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