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________________ इलि - भासिवा टीका :- नान्यव कर्म नान्येषां देहिनां कर्म यतो निर्जरयन्तश्च भवन्ति देहिनः किन्तु स्वकीयमेव यथा पारि माहा घटीतो धव्यमान निबन्धना भवन्ति, गृहीतं वारिमा घटीमात्राचीनं भवतीति भावः । १४० टीकाकार कुछ भिन्न मत रखते हैं संसार के पानियों में एक का कर्म दूसरा नहीं बांधता है और निर्जरा भी नहीं करता है। किन्तु आत्मा स्वकीय कर्म को बांधता है और खबद्ध कमों की निर्जरा भी करता है। जो आत्मा शुभाशुभ परिणति में रहता है वह अपनी परिणति के अनुसार कर्म बांधता है। स्वयं ही उनसे मुक्त हो सकता है जैसे कि पानी की घडी से समय का निबन्धन होता । अर्थात् घड़ी से पानी का साप होना है और पानी से घड़ी का और उस रूप में समय का परिज्ञान होता है । सम्पूर्ण पानी घडी में प्रवेश करता है और पुनः रिक्त होता है। यही क्रम सदैव चलता रहता है । यही क्रम आत्मा और कर्म का भी हैं। जब तक संसार स्थिति है तब तक यही क्रम चालू रहता है । बज्झर मुच येव, जीवो चित्तेण कम्मुणा । चो वा रज्जुपासेहिं, ईरियंतो पभोगसो ॥ ३७ ॥ अर्थ :- आत्मा विचित्र क्रमों के द्वारा बद्ध होता है और मुक्त भी होता है अथवा रस्सी के पाश में बंधा हुआ प्रयोग से प्रेरित होता है । गुजराती भाषान्तरः પ્રાણી જુદા જુદા પ્રકારના કર્મોના વડે અંધન પામે છે અને મુક્ત પણ થાય છે. અથવા રસ્સીના પાશમાં છંધાયેલો પ્રાણી કોઈ પ્રયોગથી ચલિત થાય છે. कर्म तो पुल द्रव्य है । किन्तु जब आत्मा में राग द्वेष के स्पन्दन होते हैं तब कर्म परमाणु आत्मा से चिपक जाते हैं। पुल द्रव्य आत्मा के स्वभाव से बिलकुल भिन खभाव रखता है । अतः वह आत्मा की शक्ति का अवरोध करता है। आत्मा से संबद्ध होने के बाद कर्म के परमाणुओं में ऐसी शक्ति होती है कि आत्मा भिन्न भिन्न गुणों को रोक सकते हैं । कोई चेतना को अवरुद्ध करते हैं, तो कोई उसकी विशुद्ध दृष्टि को ही मलिन करते हैं और शुद्ध प्रवृत्ति को रोकते हैं। पुलों का स्वभाव मेद अनुभव सिद्ध है। श्री निग्ध तत्त्व वाला है तो मिर्च तीखास तत्व वाली है। ऐसे कर्म परमाणु विभिन्न स्वभाव के होते हैं। प्रस्तुत गाथा में एक और तथ्य बताया गया है कि जबतक कर्म आत्मा से पृथक् होते हैं तब तक दोनों स्वतंत्र हैं । किन्तु जब वे आत्मा से बद्ध हो जाते हैं तब आत्मा की स्वतंत्र शक्ति अवरुद्ध हो जाती है। फिर कर्म द्रव्य उन्हें अपनी शक्ति के अनुरूप परिभ्रमण कराता है। जैसे रस्सी से बंध जाने पर आदमी को उसी की दिशा में गति करनी पड़ती है । टीका :- बध्यते मुय्यते चैव जीवश्चित्रेण नाना प्रकारेण कर्मणा । यथा रजुपाशैर्बद्धाः कश्चिदन्यस्य प्रयोगेण ईर्यते चाल्यते । गतार्थः । I कम्मस्स संत चित्तं, सम्मं नचा जिईदिए । कम्मसंतापमोक्खाय, समाहिमभिसंघ ॥ ३८ ॥ अर्थ :- जितेन्द्रिय आत्मा कर्म संतति की विचित्रता को सम्यक् प्रकार से जाने और कर्म सन्तान से मुक्त होने के लिए समाधि को प्राप्त करे । शुजराती भाषान्तर : જીતેન્દ્રિય આત્મા કર્મ-સંતતિની વિચિત્રતાને સમ્યક પ્રકારથી જાણે અને કર્મસંતાનથી મુક્ત થવા માટૅ સમાધિને પ્રાપ્ત કરે. कर्म संतति की चित्रविचित्रता का साधक सम्यक् प्रकार से परिज्ञान करे। कर्म संतति से मुक्ति के लिए साधक समाधि को प्राप्त करे। क्योंकि समाधिस्थ साधक विभाव दशा प्रवृत्त आत्मशक्ति को रोकता है और कर्मपरम्परा को तोडता है। दओ खेतओ चेष, कालओ भावओ तदा । निश्चानिष्यं तु विष्णाय संसारे सव्वदेहिणं ॥ ३९ ॥
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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