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पचीसवां अध्ययन
अर्थ:-विश्व के समस्त वेद धादियों को न्योता
द र भाव से नित्य और अनिय रूप से जाने । गुजराती भाषान्तर:
વિશ્વના સમસ્ત જીવોને દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર કાળ અને ભાવથી નિત્ય અને અનિત્ય રૂપથી જાણવા.
प्रत्येक पदार्थ द्रव्य और पर्यायात्मक है। वसु का एकत्व प्रतीतिरूप सामान्य धर्म व्यास्तिकता है। जब वस्तु को पूर्ण और अखण्ड रूप में देखते हैं, तब हमारी दृष्टि अमेदगामिनी होती है और वह दृष्टि द्रध्यास्तिक दृष्टि कहलाती है। किन्तु जब हम वस्तु के भेद रूप अंश में प्रवेश करते हैं और भेद के रूप में उसकी विशेषताओं से परिचय करते हैं, तब वह भेदगाभीष्टष्टि पर्यायास्तिक दृष्टि कहलाती है। वस्तु की गहराई में जितना ही प्रवेश मिलता जाएगा वस्तु तत्त्व उतना ही निखरता जाएगा।
__ द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि में वस्तु एक अविभाज्य और निय है, जब कि पर्यायनय की दृष्टि में शाश्वतता जैसी कोई वस्तु ही नहीं है। पर्यावनय की दृष्टि में पदार्थ प्रतिक्षण उत्पन्न हो रहा है तो विनष्ट भी। जब कि द्रव्यार्थिक नय पदार्थ को अनुत्पन्न और अविनष्ट मानता है। समस्त देहधारी आत्माएँ भी वन्य क्षेत्र काल और भाव पर्याय के अनुरूप परिवर्तन गामी हैं तो ष्य रूप से शाश्वत भी है।
निश्चलं कायमारोगग, थाणं तेल्लोकसक्यं ।।
___सवण्णुमग्गाणुगया, जीवा पावंति उसमं ॥ ४०॥ अर्थ :-सर्वज्ञ मार्ग के अनुगामी जीत्र त्रैलोक्य से संस्कृत आरोग्यकृत अचल उत्तम स्थान को प्राप्त करते हैं । गुजराती भाषान्तर:
સર્વજ્ઞ માર્ગના અનુયાયી છવ ત્રણલોકથી સંસ્કૃત, આરોગ્યકૃત, અચલ, ઉત્તમ સ્થાનને પ્રાપ્ત કરે છે,
वीतरागता का पथिक एक दिन बीतरागत्व प्राप्त करता है। साधना के क्षणों में वीतरागत्व ही हमारा लक्ष्यबिन्दु होना चाहिए। मन की रागात्मक दशाओं पर अधिक से अधिक वीतराग स्थिति प्राप्त करना ही हमारी साधना है। सम्पूर्ण वीतरागता ही निथल आरोग्य है और वही त्रिलोक का संस्कृत स्थान है। टीका:-निश्रलं कृतारोग्यं त्रैलोक्यसंस्कृतं स्थानमुत्तम प्राप्नुवन्ति जीवाः सर्वज्ञमागौनुगताः । मतार्थः ।
एवं से सिद्ध बुद्ध० । गतार्थः । इति हरगिरिअईतर्षिप्रोक्त चौबीसवां अध्ययन समाप्त ।
अम्बड़ अर्हतर्षि प्रोक्त
पच्चीसवां अध्ययन आत्मा का युद्ध स्वरूप देहातीत है। फिर वह क्यों पुनः पुनः संसार में आता है और यह चक्र कपसे चल रहा है, क्यों चला और कब तक चलता रहेगा। इन प्रश्नों का समाधान ही प्रस्तुत अध्यन का प्रमुख विषय है।
अर्हतर्षि अम्बड और अहंतर्षि योगन्धरायण की विचार-चर्चा के रूप में यह अध्यन प्रारम्भ होता है । महर्षि योगन्धरायण कौन थे? उनके परिचय के विषय में आगम मौन है। किन्तु हाँ, अम्बड अहंतर्षि जैन संसार के परिचित व्यक्तियों में हैं। प्रथम उपांग औपपातिक सूत्र में अंबड परित्राजक के नाम से एक संन्यासी का विशद वर्णन आता है। अंबड भगवान महावीर के वैदिक उपासकों में से थे। उनकी वेष-भूषा संन्यासियों जैसी थी और उनके व्रत नियमों का भी वे दृश्टता से पालन करते थे। किन्तु अन्तर से वे प्रभु महादोर के अन्य उपासक थे। अपने नियमों को इस कठोरता से पालन करते हैं कि वे और उनका शिष्य परिवार उसके लिये जीवन को उत्सर्ग कर देते हैं।
जीवन की संच्या में वे विचार और व्यवहार दोनों से ही प्रभु महावीर के सर्ववती शिष्य बन गए। उसके पूर्व उनकी वैकिय लन्धि विविध रूप प्राप्त करने वाली शक्ति के संबन्ध में गौतम गणधर देव भी प्रभु से प्रश्न करते है।