SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 176
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इसि-भासियाई पर अम्बर परिव्राजक ही अतिर्षि अम्बड है या दूसरे कोई अम्मड है? यह विचार का प्रश्न अवश्य है। प्रस्तुत सूच की. संग्रहिणी गाथा के अनुरूप अम्बड प्रभु महावीर के नहीं प्रभु पार्श्वनाथ की परम्परा के होने चाहिए। संग्रहिणी के अनुसार बीस अईतर्षि भगवान नेमिनाथ के शासन काल के हैं। पंद्रह प्रभु पार्श्वनाथ के शासन काल के है और शेष दश प्रभु महावीर के शासन काल के हैं। क्रम के अनुसार ये पच्चीसवें अहवर्षि हैं। अतः भगवान पार्श्वनाथ की ही परम्परा के होने चाहिए। साथ ही ये चतुर्थ और पंचम महाव्रत का एक साथ निरूपण करते हैं। अतः यह परम्परा भी उन्है भगवान महावीर के शासन से अलग करती है। तप णं अंबडे परिवायप. जोगंधरायणं एवं बयासी:-- मणे मे विरई भो देवाणुप्पिओ गम्भवासाहि कह न तुमं यंभयारी ? । अर्थ:-अंबड़ परियाजक योगन्धरायण को इस प्रकार बोलते हैं कि मुझे-भर्भवास से विरक्ति है। हे ब्रह्मचारी1 तुम्हे विरक्ति क्यों नहीं है । गुजराती भाषान्तर : અંખડ પરિવ્રાજક ચન્દરાયણને આ પ્રમાણે કહે છે કે હું ગર્ભવાસથી કંટાળી ગયો છું, હું બ્રહ્મચારી તને સંસારના ભોગવટાથી વિક્તિ શા માટે થતી નથી ? टीका:-तनश्नाम्यटः परिमाजको योगन्धरायणमेवमवाद् यथा देवानुप्रिय ! मनसि मे गर्भवर्षाभ्यो मैथुनाद् चिरतिः कथं न स्वं ब्रह्मचारी भवसीति । बाद मैं अम्बड परिव्राजक योगन्धरायण से ऐसा बोले कि मुझे गर्भवास से विरक्ति हैं। गर्भवास से यहा-पुनः पुनः संसार में परिभ्रमण करना गृहीत है। रीकाकार गर्भवारा से विरक्ति का अर्थ लेते हैं। गर्म वर्षा अर्थात मैथुन से विरक्ति और इसी अनुसंधान में वे बोलते हैं कि तुम भी ब्रह्मचारी क्यों नहीं होते हो। टीकार्थ से ऐसा ध्वनित होता है कि योगन्धरायण सन्त नहीं है। इसलिए अम्बद्ध परिव्राजक उनको प्रेरणा देते है। प्रोफेसर शुलिंग प्रस्तुत अध्ययन के विषय में मिन्न मत रखते हैं। पच्चीसो प्रकरण भी बीसवें प्रकरण की ही भांति मौलिक नहीं है। बल्कि उधार लिया हुआ लगता है, किन्तु उसके प्रसिद्ध, व्यक्ति बीसवें अध्ययन की अपेक्षा ज्यादा निर्णयात्मक है। किन्तु ऐसा लगता है कि प्रस्तुत अध्ययन किसी बड़े ग्रन्थ का एक अंश है। किन्तु उसका पूर्वापर संबन्ध विच्छिन्न है। क्योंकि उसका प्रारम्भ तएण से होता है। जोकि बताता है कि इसके पूर्व फुछ चला गया है। अम्बड से हम उदवाइय सत्र में परिचित है। किन्तु वहा परित्राजक के रूप में प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। उनके हिस्सेदार योगन्धरायण हैं । वस्तुतः प्रस्तुत अध्यायन उन्हीं के नाम के साथ होना चाहिए था। क्योंकि प्रस्तुत अध्याय के प्रमुख वक्ता वे ही हैं। ये योगन्धरायण उदयन के समकक्ष लगते है। ये मंत्री हैं। ब्राह्मण हैं। पर यहां जैन सावक की भांति बोलते हैं। अभिधाम राजेन्द्र के अनुसार आवश्यक नियुक्ति की कथाओं में उनका उलेख आता है। अम्बड उन्हे पूछते है कि चे भी उनके ही तरह ब्रह्मचारी के रूप में क्यों नहीं रहते है ? । क्योंकि उन्होंने भी वासनाजन्य आनन्द को छोड़ दिया है। तपणे जोगंधरायणे अंचर्ड परिवायगं एवं वयासी-हारिया पहि या पहिता आयाणेहि, जे खलु हारिता पावेहि कम्मे हिं अधिप्पमुका ते खलु भो गम्भघासाहिं सजंति ते सयमेव पाणे अतिवातेति ! अण्णे वि पाणे अतिवातेति । अर्थ:- तब योगन्धरायण अम्बड परियाजक को ऐसा बोले कि हारित पाप कर्म से बद्ध पुरुष इन कर्म के द्वारों से पाप कर्म एकत्रित करते हैं । चे पाप कमों में अविप्रमुक्त बद्ध आत्मा गर्भवास में जाते हैं। वे स्वयं प्राणियों की हिंसा करते हैं और दूसरों के प्राणों की हिंसा करवाते हैं। गुजराती भाषान्तर: ત્યારે યોગધેરાયણ અમ્બડ પરિવ્રાજકને એવું કહ્યું કે હારિત વખત પાપકર્મથી બદ્ધ પુરુષ આ કર્મો દ્વારા પાપ કર્મ ભેગું કરે છે, પાપ કર્મોથી વીંટાળેલી પ્રાણું ફરી ગર્ભવાસને સ્વીકાર કરે છે. તે સ્વયં પ્રાચિની હિંસા કરે છે. અને બીજાના પ્રાણોની હિંસા કરાવે છે,
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy