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________________ .. . चौबीसयो अध्ययन १३९ अर्थ :--मोहोदयी आत्मा मन्द मोह शील व्यक्ति का उपहास करता है जैसे सोने के आभूषण पहनने वाला लाक्षा (लाख) के आभूषण पहनने वाले की मजाक करता है । गुजराती भाषान्सर: અતિ મોહથી અંધ બને પ્રાણી મદ મેહશીલ વ્યક્તિની મશ્કરી કરે છે. જેવી રીતે સોનાના ઘરેણાં પહેરેલા મનુષ્ય લાખના ઘરેણા પહેરનારની મશ્કરી કરે છે, मोह की तीव्र पारेणति में रहा हुआ आत्मा अल्प मोह वाले व्यक्ति का उपहास करता है। जैसे सोने के गहने पहनने वाला मानव दुसरे के लाख के आभूषणों का उपहास करता है। वह समझता है कि ये बेबारे इन बातों को क्या जाने । । किन्तु तथ्य यह होता है कि जिनका उपहास किया जारहा है वे उन बातों से कितनी मंजिल आगे पहुंच चुके हैं। मोही मोहीण ममि, कीलप मोहमोहिमओ। गहीणं य गहीमज्झे, जहत्थं गहमोहिओ ॥ ३५॥ अर्थ:-मोह-मुग्ध आत्मा मोह वाले व्यक्तिओं के बीच ही क्रीडा करता है। जैसे ग्रह मोहित व्यक्ति घर में ही मुग्ध रहता है। गुजराती भाषान्तर :-- મોહમુગ્ધ આત્મા મોહવાળી વ્યક્તિઓ વચ્ચે જ મશ્કરી કરે છે. જેવી રીતે પોતાનાં રહોથી મોહિત બનેલો માણસ ઘરમાં જ મુગ્ધ રહે છે, गुवरेला मोबर का एक कीड़ा होता है। वह गोबर में पनपता है और उसी में जीता है। मुलाब की सुवास में उसका दम घुट जाता है और यदि उसे मुळाब में छोड़ दिया जाय तो वह समाप्त भी हो जाता है। ऐसे ही वासना के दूषित वातावरण में रहने वाले को यदि त्याग की स्वच्छ भूमि में आने की प्रेरणा दी जाय तो वह उसे बन्धन समससा है। मोह के संकरे घेरे में क्सनेवाले को यदि वीतरागता के शान्त मुक्त वायु में आनन्द नहीं मिलता है। टीका:-मोहमोहितो मोहिना मध्ये क्रीडत्ति अथा ग्रहोणां ग्रहवां ग्रहगृहीताना मध्ये ग्रही यथार्थ ग्रहमोहितः । मोह युक्त आत्मा मोह शील आत्मा में आनन्द पाता है। जैसे ग्रह से गृहीत मनुष्य ग्रह गृहीतों के बीच आनन्द पाता है। जो जिन संस्कारों में पला है उसे उन्ही संस्कारों में रहना पसन्द आता है। एक व्यक्ति कृषणता के संस्कार में रहता है तो उसको उदार वृति वाले व्यक्तियों के साथ रहना रुचिकर नहीं होता है। कृपण कृपण के साथ रहना चाहता है। क्योंकि उसके साथ ही उसके विचार मेल खाते हैं। हर एक व्यक्ति अपने सम-विचार के साथियों में ही रहना पसन्द करता है। बंधंता निरंता य, कम्म नाऽण्णंति देहिणो। वारिग्गाह घड़ीउ ब्य, घडिजंत निबंधणा ॥३६॥ अर्थ:-देहधारी आत्मा कर्म बांधता है और निर्जरा भी करता है, किन्तु केवल इस प्रक्रिया से ही कर्म परम्परा समाप्त नहीं हो सकती। पानी की घडी के सदृश उसका कम चलता रहता है। गुजराती भाषान्तर: દેહધારી પ્રાણી કર્મ સંચય કરે છે અને નિર્જરા પણ કરે છે. પરંતુ કેવળ આ પ્રક્રિયાથી જ કર્મપરંપરા સમાપ્ત થઈ શક્તી નથી, પાણીની ઘડીની જેમ તેને ક્રમ ચાલતો જ રહે છે. आत्मा प्रतिक्षण अनन्त अनन्त नए कर्मों का बन्ध करता है और उसी क्षण अनन्त अनन्त कर्म पुगलों की निर्ज। भी। किन्तु यह निर्जरा उसकी भवपरम्परा को समाप्त करने में समर्थ नहीं हो सकती, क्योंकि आत्मा विषाकोदय में प्राप्त जितने कर्मों को भोग कर क्षय करता है किन्तु निमित्त पर राग और द्वेष परिणति लाकर उससे अनन्त गुण अधिक क्रमों को पुनः बांध लेता है। इस अनादि क्रम के लिए अईतर्षि एक सुन्दर रूक देते है। जिस प्रकार जल-घटिका में पुराना पानी समान होते ही नया पानी आता रहता है और वह कटोरी कभी भी खाली नहीं होती इसी प्रकार आत्मा के साथ क्रमों की परम्परा चालू रहती है।
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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