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________________ इसि-भासियाई अर्थ:-वचल सुख को प्राप्त करके मानव मोह में आसक्त हो जाता है। किन्तु सूर्य की किरणों से तप्त पानी के क्षय होने पर मछली कि भौति तड़पते हैं। गुजराती भाषान्तर: નાશવંત મુખને પ્રાપ્ત કરીને માનવ મેહમાં આસક્ત બની જાય છે, પરંતુ સૂર્યના કિરણેથી ગરમ થયેલ પાણીનો શ્રેય થતાં માછલીની માફક તે પોતે તડકડે છે, पार्थिव सुख छाया की ही भांति चंचल है। सूर्य घूमता है तो छाया भी बदल जाती है। मानव मोह की मदिरा पी कर बोलता है कि मेरा सुख शाश्वत है, किन्नु पुण्य के सूर्य के ढलते ही मुख की छाया भी ढल जायेगी। सोने के सिंहासनों को भी हिलने देर नहीं लगती। जिनके घर में इत्र की दीपदानियों जला करती थीं उनकी किस्मत ऐसी रूठ गई कि उन बेचारों को मिट्टी का भी तेल नसीब नहीं होता है, शुभ पुण्य का सरोवर भरा है तब तक ठीक है। परन्तु जिस क्षण अशुभ की तेज धूप लगेगी, पुण्य का जल सूख जाएगा और उस अहंकारी की स्थिति ठीक वैसी ही होगी जैसे जल के स्त्र जाने पर तडपती हुई मछली की। टीका:-चंचल सत्रमादाय सक्ता मोहे मानवा भवन्त्यादित्यरश्मितसा इव मरस्याः क्षीयमाणपानीयाः । गताः । अधुर्व संसिया रज्ज, अवसा पावंति संखयं । छिज्ज व तरुमारूढा, फलस्थीव जहा नरा ॥ ३२ ॥ अर्थ:-अध्रुव राज्य में आधित रहा व्यक्ति विवश हो कर एक दिन अवश्य ही क्षय होता है। फलेच्छु मानव यदि कटे हुए वृक्ष पर आरूढ होता है तो परिणाम में दुःख ही पाता है। गुजराती भाषान्तर :-- અસ્થિર રાજયમાં દિન જયેલી પદિ નિગર . એક દિવસ અને ક્ષય પામે છે. ફળની ઈચ્છા કરનાર માણસૂ કુપાયેલા વૃક્ષની ડાળીને પકડનાર માણસની જેમ અંતમાં દુઃખ જ પામે છે. मानव क्षणिक राज्य के शरण में जाता है, किन्तु एक दिन ऐसा आता है जब कि उसे विवश हो कर विशाल साम्राज्य को छोड़ देना पड़ता है। मानव अनन्त काल तक सत्ता से चिपटा रहना चाहता है । किन्तु परिस्थितियां अलग टने के लिए उसे विवश कर देती हैं। फलार्थी मानव वृक्ष पर चढता है और कटी हुई डाल को पकडता है फल तो जरूर हाय लगता है किन्तु दूसरे ही क्षण वह अधकटी शाखा टूट आती है और उसको भूमि पर आ जाना पड़ता है। टीका:--मधुवं राज्य संश्रिता नरा अवशाः संक्षयं प्रामुवन्ति फलार्थिन इच सछेय तस्मास्याः । गतार्थः । मोहोवप सयं अंतू, मोहंतं चेय खिसई ।। छिण्णकपणो जहा कोई, इसिजा छिन्ननासिय ॥ ३३ ॥ अर्थ:-मोहोदय में आत्मा बुथा ही एक दूसरे से द्वेष करता है। जैसे कटे कान वाला व्यक्ति कटी नाकवाले व्यक्ति को देख कर हंसता है । गुजराती भाषान्तर: ત્યારે મોહ ઉપન્ન થાય છે ત્યારે માણસ એક બીજાને સાથે વર કરે છે. જેવી રીતે કપાયેલા કાનવાળા કપાયેલ નાકવાળી વ્યક્તિને જોઈને હસે છે. मोह की तीन परिणति में मानव एक दूसरे पर रेप करता है। मोह की जिस ज्वाला में स्वयं जल रहा है मोह के उस क्षेत्र में दूसरा प्रवेश करता है तो मीषण प्रतिशोध की ज्वाला उसके अन्तर में जल उठती है। लेकिन यह विद्वेष की आग व्यर्थ है। क्योंकि वह स्वयं भी उसी की लपटों में है। जिस प्रकार कटेकान वाला कटी माकवाले व्यक्ति को देख कर हंसता है। किन्तु अपनी ओर देखने की वद्द चेष्टा ही नहीं करता है। किन्तु दोनों ही एक समान है। मोहोदई सय जंतू, मंद-मोहं तु खिसई। हेम-भूषणधारी व्य, जहा लक्खविभूषणं ॥ ३४॥
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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