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________________ चौबीसवां अध्ययन १३७ "अच्छा, तो एक साल पहले तुमने मुझे गाली क्यों दी थी ?" अपना पहला निशाना खाली जाते देख कर ये भेडिये ने दूसरा तीर छोड़ा। "चचा ! मैं सात महीने का हूँ, फिर साल भर पहले मैं ने तुम को गाली कैसे की ?" भेड के प्राण सुख रहे थे, फिर भी उसने कोमल शब्दों में उत्तर दिया । "अच्छा, तो तुम्हारी मां कल हमारे सामने गुर्रा रही थी उसका ठीक जवाब मैं तुमको दूंगा ।" भेडिया गुर्राते हुए बोला। "पर साहब ! मेरी अम्मा को मरे आज तीन महीनों हो गये, कल कहीं ख्वाब में तो नहीं देखी थी ?।" सब तीर खाली जाते देखकर मेडिया झलाया और बोला, कि "कल के छोकरे ! मेरे सामने जबान चलाता है ? । " इतना कहकर एक ही छलांग में भेडिए ने उस मालूम मेद के बच्चे को धर दबोचा। सभ्य दुनियाँ की यही कहानी है। बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती है ! । पत्रप्पण्णरसे गिद्धो, मोहमलपणोलिओ । दिसं पावइ उकंड, वारिमज्ये व चारणो ॥ २९ ॥ अर्थ :- मोह मऊ से प्रेरित आत्मा मात्र वर्तमान के रस में आसक्त होता है। मोह की प्रदीप्त ज्वाला से उद्दी आत्मा मोह का तीव्र बन्धन करता है जैसे कि पानी के बीच रहा हुआ हस्ति तीव्र उत्तेजना प्राप्त करना है । गुजराती भाषान्तरः મોહરૂપી થી કોણ પસેલા બા માન સ્વૈરિ સુખમાં વ્યક્ત થાય છે. જેવી રીતે પાણીની વચ્ચે રહેલો હાથી ઘણો ઉત્તેજીત થાય છે તેવી રીતે મોહની પ્રદીપ્ત જ્વાળાથી ઉદ્દીપ્ત આત્મા મોહના મજબુત બંધનથી બંધાય છે. मोह की मदिरा से मत्त बना आत्मा केवल वर्तमान के सुख को ही देखता | वर्तमान को ही पूर्ण मान लेना सबसे बडी नास्तिकता है। " इहैकपरो नास्तिकः " वर्तमान क्षण को ही जो पूर्ण मान लेता और अनागत पर्यायों से इन्कार करता है, वह बहुत बड़े अन्धकार में है । है, आत्मा की अनन्त अनन्त अतीत सवल पाय पुरा किया, दुखं वेपर दुम्माई | आससकंटपासी वा, मुकघाओ दुहट्टिओ ॥ ३० ॥ } अर्थ :- दुर्बुद्धि आत्मा पहले स्ववश रूप में पाप करता है और बाद में दुःख का संवेदन करता है। जिस प्रकार मनुष्य आवेश में आकर गले में फांसी लगा कर मृत्यु को निमन्त्रण देता है और याद में वेदना के कारण उससे बचना चाहता है । गुजराती भाषान्तर : દુષ્ટ મુદ્ધિવાળો આત્મા પહેલાં પોતાને હાથે પાપો કરીને પછી દુઃખ અનુભવે છે. જે પ્રમાણે મનુષ્ય આવેશમાં આવીને ગળામાં ફાંસો નાંખી મૃત્યુને નિમંત્રણ આપે છે, અને પછી તેની વેદનાથી બચવા ચાહે છે. आत्मा क्रिया करने में स्वतंत्र है किन्तु उसके फल भोगने में स्वतंत्र नहीं हैं। अमुक कर्म करें या न करें यह हमारी इच्छा पर निर्भर है, किन्तु एक बार जो कार्य कर लिया है उसके प्रतिफल से इन्कार नहीं कर सकते हैं। एक किसान अपने खेत में बीज बोने के लिए स्वतंत्र है, वह गेहूं या बाजरा जो चाहे जो सकता है, किन्तु एकबार गेहूं बो देने के बाद वह बाजरा नहीं पा सकता 1 आत्मा मन के खेत में शुभ या अशुभ कर्म के बीज डालने में स्वतंत्र है, किन्तु एक बार जो बीज पड़ चुके हैं उनकी फसल तो तैयार हो कर ही रहेगी। परम्परारूप से कर्म अनादि है । परन्तु व्यक्ति रूप से वे अनादि नहीं हैं। एक कर्म अपनी अमुक काल सीमा को लेकर आता है और प्रतिफल देकर आत्मा से पृथक् भी हो जाता है । बन्ध के पूर्व आत्मा स्वरा | रामात्मक परिणति को रोक कर गन्ध को समाप्त भी कर सकता है, किन्तु बन्ध के बाद फिर कर्म की शृंखला से बंध कर दुःख का वेदन ही करता है । टीका :--१५ वे अध्याय में ११ से १४ श्लोक के रूप में आ चुका है। चंचलं सुहमादाय सत्ता मोहम्म माणवा । आइश्वरस्सित था, मच्छा झिज्जतपाणियं ॥ ३१ ॥ १८
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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