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________________ इसि-भासियाई अर्थ: कुछ बाह्मण राजरथ पर आरूढ हो कर सेना के साथ युद्ध आरंभ करते हैं। किन्तु ब्रह्मवृत्ति के पालक विवेक साथ अपने गृहों को बन्द कर लेते हैं। गुजराती भाषान्तर: કેટલાક ડાહ્મણો રાજરથ પર આરૂઢ થઈને સેના સાથે યુદ્ધ આરંભ કરે છે. પરંતુ બ્રહ્મવૃષ્ટિના પાલક વિવેકથી પોતાના ઘરો બંધ કરે છે, कुछ ब्राह्मण विप्रवेश में जन्म लेकर भी क्षत्रिय बृत्ति लेकर आते हैं इसीलिए वे युद्ध के मैदान में उतर आते हैं। किन्तु जो ब्रह्मति वाले हैं उनमें ज्ञान की ज्योति जगमगाती रहती है। अतः हिंसात्मकवृत्ति के लिए अपने द्वार बंद कर देते है। प्रोफेसर शुबिग लिखते हैं कि जो ब्राह्मण और वैश्य की भांति एक रक्तरेजित धार्मिक क्रिया करता है वे सदसद का विवेक को बैठते हैं। यहां तीसरी पंक्ति-आवश्यकतानुरूप पहली से जोड़ी गई है। क्योंकि दोनों पंक्तियाँ बहु बचन में हैं। अंधी जोड़ी के संबन्ध में यहां “अंधो संबंध पह निन्ते" की असर दिखाई देती है। फिरभी दोनों पंक्तियों में अस्पष्टता शेष रह जाती है। टीका:-अन्धेन युगेना चक्षुष्मता वाहयुग्मेन विपर्यस्तोसराधरमिषध्वनि राजपथमारूदेव भादानैप्ति मार्गे युन्नमारभते नतु युद्धभूमौ सो ब्रह्मणो यद् यद्धिंसनं कर्म प्रकरोति तत्सर्व सर्षया हतपुडेरिव निरर्थकमिति भावः । टीकाकार का मत भिन्न है। वे लिखते हैं कि जैसे दो अंध युगल मार्ग में मिलते हैं और यदि वे विरोधी हैं तो वहीं राजपथ में लद पड़ते हैं। यह युद्ध राज पथ में होता है, युद्ध भूमि में नहीं। इसी प्रकार जो ब्राह्मण हिंसा कर्म में प्रवृत्त होते हैं उनका कार्य हतबुद्धि व्यक्ति की भांति निरर्थक हैं। दो विपरीत दिशा से आने वाले अंधों में टकर हो सकती है और वे राजमार्ग को युद्ध भूमि बना सकते है। किन्तु जिनकी दोनों आंखें खुली हैं वे भी यदि टकराने लगे तो उनको क्या कहा जाय ? यही कि स्थूल आँखें खुली हैं परन्तु अन्तर्चक्षु अभी नहीं प्राप्त हुए है। इसी प्रकार तत्व को न जानने वाला हिंसा करता है। वह अज्ञानी है पर शास्त्रों को रटनेवाले और तत्वज्ञान का दावा रखने वाले भी यदि हिंसा के क्षेत्र में उतरने लगे तो समझना होगा कि शास्त्रों को रटा है, पर समझा नहीं है । रटन तो एक पोपट भी कर सकता है किन्तु उसको कोई ज्ञानी नहीं कह सकता है । रट लेना अलग चीज है, पर उसका तत्व समझ लेना अलग चीज है। यदि सही विश्वास के साथ समझा है तो गलत कदम उठ ही नहीं सकता । इसीलिए भगवान महावीर कहते हैं कि 'णाणस्स फलं विरतिः'। ज्ञान का फल विरक्ति है। प्रसिद्ध विद्वान् कनफ-यूशस् शान और आचरण का साहचर्य बताते हुए कहता है कि The essonce of knowledge is having it, to apply it not having it to confese ignorance-कन्फ्यू शस ।। ज्ञान का सार यह है कि ज्ञान रहते उसका प्रयोग करना चाहिए । और उसके अभाव में अपनी अज्ञानता स्वीकार लेनी चाहिए। दूसरा विचारक सेनका कहता है कि Wisdom teaches us to do as well ss talk to make our words and actions all of a colour ज्ञान हम को करना और बोलना सिखाता है। हमारे शब्दों और कार्यों को एक रंग में रंग देता है। संत विनोबा भी कहते हैं कि मनुष्य जितना ही ज्ञान के रंग में घुल गया हो उतना ही वह कर्म आचरण के रंग में रंग जाता है । ण माहणे घणुरहे, सत्थपाणी ण माहणे। __ण माहणे मुसं बूया, चोज कुज्जा ण मारणे ॥ ४॥ अर्थ :-धनुष और रथ से युक्त ग्राह्मण नहीं हो सकता । ब्राह्मण रामधारी भी नहीं हो सकता । ब्राह्मण मृषावाद भी न बोले और चौर्य कर्म भी न करे । गुजराती भावान्तर:' ધનુષ અને રથથી યુક્ત બ્રાહ્મણ હોઈ શકે નહીં. બ્રાહ્મણ શસ્ત્રધારી પણ થઈ શકતા નથી. બ્રાહ્મણ મૃષાવાદ (1) पर मानही अने योरी (न मामा मयु) ५ अरे नही,
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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