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________________ छब्बीसी अध्ययन - - - - जो साधक धर्म-साधना करते है उनके मन में एक सहज प्रश्न उठता है कि धर्म क्या है और उसके कितने प्रकार है। इसके उत्तर में ऋषि बोलते हैं कि हे आयुष्यमान साधकों! धर्म के उन सभी प्रकारों को मेरे से सुनो। अतिर्षि धर्म की व्याख्या और उसका प्रकार बताते हुए सीधा एक प्रश्न कर देते हैं कि बाहाण वर्णवाले नाग युद्ध क्यों मीरखते हैं ! उनका अध्ययन अध्यापन और तत्वचिन्तन करना और मनन का मक्खन जगत को देना उनका कार्यक्षेत्र है फिर वे युद्ध कार्य क्या सीखते हैं. १ टीका:-कतरो धर्मः प्रशसः मैं न सम्यग् जानीयेति भाषः। हे आयुष्यमतः सर्व धर्म यदि वा हे सर्वाथुष्यमन्तो धर्म मम मत्तो वा गुणुत । केनार्थेन ब्राह्मणवर्णाभा न बामणाः सन्तो महाणति मा तेति श्लोका युद्ध शिक्षन्ते हिंसो प्रकुर्वन्ति । ___ अर्थात् कितने धर्म कहे गए है। इससे यह ध्वनित होता है कि प्रश्नकर्ता धर्म के मर्म को समझता नहीं है। हे दीर्घजीवियों ! सभी धर्मों को अथवा सभी आयुष्यमानों धर्म को मेरे द्वारा सुनो। ब्राह्मण वर्ण की आमा वाले अर्थात् ब्राह्मण जैसा दिखाई देने वाले किन्तु यथार्थ में जो ब्राह्मण नहीं है अर्थात् शरीर से जो ब्राह्मण हैं और प्रकृति से क्षत्रिय हैं वे हिंसा क्यों करते हैं। इस तरह श्लेष रूप से युद्ध की शिक्षा देते हैं अर्थात् हिंसा का प्रसार करते हैं। रायणो वणिया जागे, माहणा सत्थजीविणो । अंधेण जुगणद्धे घि-पल्लत्थे उत्तराधरे ॥२॥ अर्थ:-राजा गण और वणिक लोग यदि अन्न बाग में प्रवृत्त हों और ब्राह्मण शास्त्र जीबी हो तो ऐसा होगा मानो अंधे से जुड़े हुए हैं। गुजराती भाषान्तर:- રાજોગણ અને વણિક જે યજ્ઞ-યાગાદિ ક્રિયાઓમાં પ્રવૃત્તિ રાખે અને બ્રાહ્મણ લોકો સમરાંગણમાં ઉતરે તે એવું થશે જાણે કે આંધળાઓ ભેગા જોડાયેલા છે. जिसकी जो वृत्ति है उस वृत्ति के अनुसार यह काम करता है तो वह उसमें सफल हो सकता है और यही उसका धर्म है। राजा क्षात्रवृत्तिशील होता है उसमें बीरत्व और तेज होता है उसका कार्य है देश की रक्षा करना । वैश्य का कार्य है विनिमय राष्ट्र की संपत्ति की आवश्यकतानुरूप वितरित करने का दायित्व वेश्य के ऊपर है और शास्त्र का अध्ययन अध्यापन करना ब्राह्मण का कार्य है। यह समाज में चक्षु का स्थान रखता है पर यह एक स्थूल व्यवस्था है। हर एक मनुष्य की अपनी अपनी वृत्ति होती है। उसी के अनुरूप उसे कार्य करना चाहिए । ब्राह्मण वृत्तिवाला ही ब्राह्मण है। परशुराम ब्राह्मण कुल में जन्म ले कर भी क्षत्रिय थे। जब कि भगवान महावीर क्षत्रिय हो कर भी ज्ञान-साधक थे । अतः वर्णव्यवस्था का यह तो मतलब नहीं होता है कि उस वर्ण में जन्म लिया हुआ व्यक्ति उसी वृत्ति के अनुरूप हो । अपनी वृत्ति के अनुरूप वर्ण चुनने में स्वतंत्र है। फिर भी जो व्यक्ति में जो वृत्ति है उससे विपरीत वृत्ति कार्य करता है तो वह कार्य उसके लिए शान्तिदायक नहीं हो सकता। ब्राह्मण यदि पठन-पाठन त्याग कर शस्त्र हाथ में लेता है और क्षत्रिय तथा वैश्य यज्ञ याग में आते हैं तो यह कार्य उनकी वृत्ति के विपरीत होगा । अतः उसमें उनको लाभ नहीं अपितु हानि ही होगी। टीका:-पास्त्रजी विनो हि यागे भवन्ति ब्राह्मणाः, लौकिकव्यापारेषु तु राजानः क्षत्रियवाणिजो वैश्यांच स्वधामानि स्वगृहाणि स्वात्मनो वा पिनिदधति निरुंधन्ति विवेकात् ब्रह्मपालनाचेति तृतीयछोकस्योत्तराध द्वितीयस्य पूर्वार्धन संवन्धनीयम् । टीकाकार कुछ भिन्न मत रखते है। ब्राह्मण यज्ञ में शास्त्रजीवी होते हैं। क्षत्रिय गण लौकिक व्यापार में रत रहते हैं। तू, ब्रह्मचर्य के पालन के लिए अपने घरों को बन्द रखते हैं। यहां तीसरे लोक का उत्तरार्ध दूसरे लोक के पूर्वार्ध से सम्बन्धित है। आरूढा रायरहं, अडणीए युद्धमारभे । सधामाई पणिद्धति, विवेता बभपालने ॥ ३॥
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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