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________________ छब्बीसवां अध्ययन १५३ ब्राह्मण के हाथ में धनुष बाण शोभ नहीं सकते हैं। उसकी जीभ पर सूषावाद शोमित नहीं होता और उसके आचरण में चौर कर्म शोभा नहीं पा सकते । सर्वहितकर साहित्य उसके हाथ में शोभित होता है। सम के लिए हितप्रद और मधुर घाणी उसके मुख को शोभित करती है। जयघोष मुन्ने ब्राह्मण कर्म का परिचय देते हुए कहते हैं कि: जो क्रोध में या इंसी में, लोभ से अथवा भय से कभी भी असत्य भाषण नहीं करता उसी को में ब्राह्मण कहता हूं। सजीव यश निर्जीव, अल्प या अधिक किसी भी रूप में बिना ही हुई वस्तु को ग्रहण नहीं करता है उसी को मैं ब्राह्मण कहता है। टीका :-यथार्थनामा माहाणो न घम्वी न रथी न शस्त्रपाणिः स्थान भूषा श्रूयान चौयं कुर्यात् । गतार्भः। मेहुणं तु ण गच्छेजा णेच गेण्हे परिम्गह। धम्मंगेहिं णिजुत्तेहिं, झाणज्मयणपरायणो॥५॥ अर्थ :-ब्राह्मण अब्रह्मचर्य का सेवन न करे । और परिग्रह को भी ग्रहण न करे । धर्म के विविध अंगों में नियुक्त हो ध्यान और अध्ययन में सदैव परायण बने । गुजराती भाषान्तर: બ્રાહ્મણ શ્રદ્ધત્વને વિરોધક કામ કરે નહીં અને પરિગ્રહ(દાન)ને પણ પ્રહણ કરે નહીં. ધર્મના વિવિધ અંગોમાં નિયુક્ત અને અને ધયાન અને અધ્યયનમાં સતત ગ્યાસંગ કરે. कोहा या जड़ वा हासा लोहा वा जड वा भया । मूसं न वयई जोउ तं वयं बूम माइणं । चिसमंतमचिनं वा अप्पं वा जइ वा बहुं। न गिपर अदत जे तं वयं बूम माहणं ।। -उत्तराध्ययन २५ गाथा २५, २५ ब्राह्मण के वैभाविक कमा में मैथुन और परिप्रह का भी समावेश है। जो कि ब्रह्म वृत्ति के अनुकूल नहीं रहते । अत उसके लिए यह मी त्याज्य है । दया, करुणा, तेज, क्षमा और निर्लोभता आदि जो गुण धर्माग हैं वे ही उसे शोभते हैं। अतः वह धमांगों में प्रवृत हो कर भ्यान और अध्ययन में परायण बने । टीका:-- मैथुनं गच्छेन परिग्रहं गृह्णीयात् , स्यात्तु नियुक्तानामाज्ञापितानां दशानामपि धर्मापानां ध्यानाध्ययनपरायणः। ब्रह्मवृतिशील साधक वासना और परिग्रह से दूर रहे। तथा उसके लिए निर्दिष्ट दशौ धर्मों में बह प्रवृत्त रहे । इन दश धर्मों के नाम इस प्रकार हैंक्षमा, मृदुता, सरलता, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, अकिंचनता और ब्रह्मचर्य, सर्दिवदिपहिं गुत्तेहिं, सचप्पेही स माहणे। सीलंगेहिं णिउत्चेति, सीलप्पेईही स माहणे ॥ ६॥ अर्थ :-जिसकी इन्द्रियाँ निग्रहीत हैं और जो सत्यप्रेक्षी हैं वही ब्राह्मण है। शील के विविध अंगों में जिसने अपने मन को नियुक्त कर रखा है यह शील प्रथा ही ब्राह्मण है। गुजराती भाषान्तर: જે ઈન્દ્રિય પર પૂર્ણ સંયમ (કાબુ) રાખે છે અને જે સત્ય પ્રેક્ષી છે તે જ બ્રાહ્મણ છે. શીલના જાણકાર તે જ બ્રાહ્મણ છે. શીલના વિવિધ અંગોમાં જેણે પોતાના મનને નિયુક્ત કરી રાખ્યું છે, શીલન જણકાર તેજ બ્રાહ્મણ છે, जिस पर इन्द्रियों का शासन नहीं है, जिसकी इन्द्रियां दुर्वासना की ओर नहीं जाती है वह सत्य द्रष्टा ब्राह्मण है। साथ ही सदाचार के अंगों को जिसने आत्मसात् किया है वह सदाचार शील व्यक्ति ब्राह्मण है। पांच शीलोग बताए गए है। दया, सत्य, प्रामाणिकता, सन्तोष और मद्य वस्तु का परित्याग। ... .. .. ... ... ... ..... .... १ उत्तमक्षमामार्दपार्जवशी ससत्यसंयमतपस्त्यागकिंधन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः। --तरवार्थस्त्र अध्याय २ सूत्र ६...... २०
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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