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इसि मासियाई
टीका :- गुप्तैः सवैः सत्यप्रेमी स्याच्छीलप्रेक्षी च सप्तस्वपि शीलांगेषु नियुकेषु । गतार्थः । छज्जीवकाय हितए, सब्बस सदयावरे ।
स माहति घत्तव्त्रे, आता जस्स विमुज्झती ॥ ७ ॥
अर्थ:-पद-जीव - निकाय के प्रति जिसके मन में कल्याण कामना है, प्राणी मात्र पर जो दया की धारा बहाता है और जिसकी आत्मा विशुद्ध हैं वहीं त्राह्मण कहलाता है।
गुजराती भाषान्तरः
છ કાય જીવ પ્રત્યે જેના મનમાં કલ્યાણુની કામના છે. પ્રાણી માત્ર પર જે દયાની ધારા વહાવે છે અને જેનો આત્મા વિશુદ્ધ છે તે જ બ્રાહ્મણ કહેવાય છે.
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प्रस्तुत गाथा सप्तक के द्वारा ब्राह्मणत्व का परिचय दिया गया है। क्योंकि ब्राह्मण संस्कृति और श्रमण संस्कृति की धारा हजारों वर्षों से साथ साथ बहीं है। अतः एक दूसरे के साहित्य में या संस्कृति में उसकी छाया उतरना सहज हैं। यह तो संभव ही नहीं है कि हजारों वर्षों से साथ में बहने वाली संस्कृति की दो धाराएँ सदा दूर रहे। या साहित्य में एक दूसरे का नाम ही न मिले। आगम में जहां जहाँ श्रमण संस्कृति का नाम आया है उतने ही गौरव के साथ ब्राह्मण संस्कृति का भी स्मरण किया गया है। आगम की पाठावली देखे तो स्पष्ट अनुभूति होगी । "तहा रूवं समणं वा माहणं," - स्थानांगसूत्र, भगवतीसूत्र, सुखविपाक |
जैन दर्शन ने द्राह्मण संस्कृति का विरोध नहीं किया है। किन्तु ब्राह्मणत्व की ओट में पनपने वाले जातिवाद, पंथवाद और पूजावद का उसने डट कर विरोध किया है। तमाम सड़ी गली निष्प्राण रूढियों की विकृत स्नायुओं का ऑपरेशन करके उसने शुद्ध ब्राह्मण की प्रतिष्ठा की है।
उत्तराध्ययन सूत्र के पचीसवें अध्याय में इसी शुद्ध ब्राह्मत्व का परिचय दिया गया है। जैन दर्शन व्यक्ति-पूजक नहीं, अपितु गुणपूजक हैं । इसने एक दिन आघोष किया था कि- “गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिंगं न च वयः ।" गुणपूजक संस्कृति ने शुद्ध ब्राह्मणत्व को आदर दिया हो तो उसमें कोई आश्चर्य नहीं होगा ।
स्थूल क्रियाकांडों में श्रमणत्व और ब्राह्मणत्व को सीमित माननेवाली विचारधारा का जैन दर्शन ने विरोध किया है । उसने कहा है कि द्रव्यसाधना शरीर है जब कि भावसाधना उसका प्राण हैं । अतः केवल स्थूल गन से न माप, फिर वह श्रमणत्व हो या ब्राह्मणत्व उसका प्रखर आघोष निम्न विचार में सुना जाता है। केवल सिर मुंडा लेने से ही कोई भ्रमण नहीं हो जाता है। केवल कार का जाप मात्र ही किसी के ब्राह्मण के लिए पर्याप्त नहीं है। केवल अरण्यवास ही किसी को मुनि नहीं बना सकता है। ( अन्यथा तमाम वनवासी पशु पक्षी मुनि होते और केवल वल्कल वस्त्र ही किसी को तपखी नहीं बना सकता। तात्पर्य यह है कि इन सभी क्रियाओं के साथ अन्तःसाधना चाहिए । समत्व का साधक ही श्रमण हो सकता है। और ब्रह्मचर्य का धारक ब्राह्मण हो सकता है। ज्ञान से ही कोई मुनि कहला सकता है। और तप का साधक ही तपखी कहला सकता है।
टीका :- पजीव निकायहितः सर्वसत्वदयापरः स ब्राह्मण इति वक्तव्यो यस्यात्मा विशुद्ध्यति । गतार्थः । दिव्वं सो किसि किसेजा, वन्निनेजा, मातंगेण अरहता इसिणा बुझतं ।
अर्थ :- ब्राह्मण दिव्य खेती करे, किन्तु पानी की क्यारियां न बनाए या उसे छोड़े नहीं । मातंग अर्हतर्षि इस प्रकार बोले ।'
गुजराती भाषान्तर :
બ્રાહ્માણુ દિવ્ય ( શ્રદ્ધા, પ્રેમ, દયા અને જ્ઞાનરૂપી ) ખેતી કરે, પરંતુ પાણીની ક્યારીઓ મનાવે નહીં અથવા તેને છોડે નહીં. માતંગ અર્હતર્ષિ આ પ્રમાણે બોલ્યા.
- १ नवि मुंडियण समणो न ॐकारेण भगो । न मुणी रणवासेण कुसचीरेण तावसो । समयाद समणो होड बंभचेरेण बंभो । णाणेण य मुखी हो तवेण हो ताली ।