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नवम अध्ययन
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मिथ्यात्व:-व्यवहार में सत्य, देव, गुरु, धर्म पर श्रद्धा का श्रम अभाव, असद, देव, गुरु और अधर्म पर श्रद्धा मिथ्या तत्व हैं। दार्शनिक दृष्टि से नव तस्वों पर यथार्थ श्रद्धा का अभाव या उनको विपरीत रूप में देखना मिथ्यात्व है। किसी पदार्थ को एकान्त नित्य या अनित्य मानना भी मिथ्यात्व है । वस्तु के अनन्त धर्मों में से किसी विशेष धर्म को स्वीकार करके शेष धमला घरनशियाबदार और शिय आदि नयों में से एक को ही सत्य मान कर दूसरे का विरोध करना मिथ्यात्न है । निश्चय दृष्टि से आत्मा की शुद्ध स्वभाव-दशा से हट कर विभाव-दशा में रमण करना मिथ्यात्व है।
-इसे अप्रत या अविरति भी कहते है। हिंसा, असत्य आदि में जाती हुई आत्मा-प्रवृत्ति का निराधव्रत है। इसका अभाव व्यावहारिक दृष्टि से अनत है । निश्चय दृष्टि से अन्तरात्म वृत्ति में अरति पाकर बहिरात्मक प्रयसि में जाना अग्रत है।
प्रमाद:-मद विषयादि से प्रेरित होकर मूल गुण एवं उत्तर मुणो में अतिचार लगना व्यवहार प्रमाद है। निश्य रष्टि में आत्मा के अप्रमाद रूप शुद्ध भाव से चलित होना प्रमाद है।
कषाय:-जिनके द्वारा भव-परम्परा की वृद्धि होती है ऐसे कोधादि विकार व्यवहार कषाय है। निश्चय दृष्टि में भात्मा के प्रशान्त रूप में क्षोभ की लहर पैदा होना कषाय है।
योग:-मन पचन और काया की चंचलता योग कहलाती है । नैश्चयिक दृष्टि से आत्मा में परिस्पंद होना ही योग है।
मिथ्यास्त्र के पांच या पश्चीस भर है। प्रत के १२ मेद है। प्रमाद के ५ कषाय के चार और योग के तीन भेद हैं। विस्तृत ब्याख्या के लिये अन्य ग्रंथों का अवलोकन करें।
जहा अंडे अहा बीप, तहा कम्म सरीरिणं ।
संताणे व भोगे य नाणायनत्तमिल्छ ॥६॥ अर्थ:-जैसा अंडा होता है वैसा ही पक्षी भी होता है । जैसा बीज होगा वैसा ही वृत होगा। इसी प्रकार जैसे कर्म होंगे आत्मा को वैसी शरीर मिलेगी । कर्म के ही कारण सन्तति में और भोग में नानात्व देखा जाता है। गुजराती भाषान्तर:
જેવું ઈડું હોય છે તેવું જ પક્ષી પણ હોય છે. જેવું બીજ હશે તેવું જ ઝાડ થશે. તે જ પ્રમાણે જેવા કામો હશે, તેના પ્રમાણે આત્માને શરીરની પ્રાપ્ત થશે. કમેને લીધે જ સંતતિમાં અને ભેગમાં નાનાવ જોવા મળે છે,
संसार विरूपता और विविधता का जीता-जागता रूप है। एक ही मां के दो लडकों में साम्य नहीं पाया जाता। कोई मुद्धिमान है तो कोई मूर्ख है। इस विविधता का उत्तर वैदिक दर्शन ईश्वर में देता है, कि ईश्वर की इच्छा ही इस विविधता का कारण है। जैन दर्शन इसका ठीक ठीक उत्तर देता है, कि मयूर के अंडे से मयूर ही जन्म लेता है। आम की मुठली से आम ही पैदा होता है। इसी प्रकार जैसा क्रम होगा उसी के अनुरूप देहधारियों के भोग होते हैं । यह विविधता और विचित्रता आत्मा के पूर्वोपार्जित शुभाशुभ कर्म पर आधारित है।
निबत्ती पीरियं चेव, संकप्पे य अणेगहा।
नाणावपणवियकस्स दारमेयं हि कम्मुणो ।। ७ ॥ अर्थ:-नियुत्ति, रचना, पुरुषार्थ, अनेकविध संकल्प, नाना प्रकार के वार्षा और वितकों का द्वार-कर्म है। गुजराती भाषान्तर:
નિવૃત્તિ, રચના, પુરુષાર્થ, અનેકવિધ સંકલ્પ, વિવિધ પ્રકારના વર્ગો અને કોના દ્વાર કર્યું છે.
हर व्यक्ति की रचना, शकि और संकल्प पृथक् पृथक् हैं । यह सूत्रत्रयी ही नव सर्जन का केन्द्र है । आत्मा के जैसे संकल्प होंगे उसी दिशा में उसका शक्ति-प्रवाह भी बहता है। संकल्प और शक्ति ही मानव बनता है। सत् संकल्प और शक्ति सत्प्रयोग मानव को सत् रूप में डालता है। आत्मा का संकल्प बल ही तो था कि महावीर बन सके । आत्मा सत् संकल्प करता है तो वीर्य शक्ति उसकी सहचारिणी बनती है और वहीं शक्ति मानव को महामानव बना सकती है।