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________________ ४४ इसि-भासियाई असद संकल्प और असत् शक्ति मानव को दानब बना सकती है । रावण को रावण बनाने वाले उसके दुस्संकल्प ही तो थे। संकल्प का छोटा-सा बीज-शक्ति का जल पाकर एक दिन विराट्र वृक्ष बनता है। आत्मा भुलक्कड माली है जो बीज डालकर भूल जाता है। किन्तु जब वे प्रक्ष का रूप लेते हैं तब उसे प्रतिबोध होता है । आत्मा प्रतिक्षण असंख्य बीज डाल रहा। है । प्रतिक्षण सावधान रहे कि खेत में बुरे बीज न पड़ जायें, अन्यथा वे ऊग के ही रहेंगे। आत्मा के हर संकल्प में अनन्त बल है । जैसे हमारे संकल्प हैं वैसे ही हम बनेंगे। “यो यच्छ्रद्धः स एव सः" । अतः अपनी चेतना जागृत रखे। कहीं असत्संकल्प हमारे मन में बैठ न जावें । दुनिया में वर्णों की चितकों की, दूसरे शब्दों में आकृति और प्रकृति की विषमता ही संकल्पों पर आधारित है। दार्शनिक भाषा में सत्सकल्प के द्वारा शुभ कर्म एकत्र होता है और वे ही कर्म आत्ना, को शुभ या अशुभ प आकृति और प्रकृति प्रदान करते हैं। एस एव विवण्णासो संवुडो संयुडो पुणो। कमसो संवरो नेओ देस-सव्वविकप्पिओ ॥ ८॥ अर्थ:-यही आत्मा का विपन्न रूप-विभाव दशा है, अतः सापक पुनः पुनः संवृत्त बन आत्मा को पाप से संवत करना ही देश और सर्वतः संवर है। गुजराती भाषान्तर:सारा सामान स्व३५छे; विभाग तथा समय भी पीताथी દર રાખે તે જ દેશ અને સર્વ સંવર છે. प्रस्तुत गाथा में संघर तत्व का निरूपण किया गया है। असत्संकल्पों के द्वारा आत्मा विष रूप बनता है। यह विभाग दशा आत्मा का शुद्ध रूप नष्ट करती है । अतः साधक अपने को असत्संकल्यों से समेटे। मिथ्या विचारों से समेटे । कषाय और वासना से आस्मा को संबस बनाए। जैसे कछुआ अपने पर आघात होते देखता है तो अपने को संवृत कर लेता है। गर्दन और पैरों को समेट लेता है। फिर कोई भी शत्रु उस पर प्रहार नहीं कर सकता है । इसी प्रकार आत्मा भी जहाँ अपनी स्वभाव दशा का हनन देखे यहां अपने को समेट ले । यही समेटना सैवर कहलाता है। जो कि देश और सब दो भेदों में विभक्त है। खिम्मान परिगति से आंशिक रूप में हटना देश संबर है। और सब संवर रूप चारित्र यथाकाल कहलाता है जिसमें किसी प्रकार के कर्म का बन्धन नहीं होता है। दूसरी व्याख्या के अनुसार शैलेशीकरण सब संवर रूप चारित्र है। आत्मा की वह नियुकंप अवस्था जिसमें समस्त राय द्वेष प्रेरित आत्मा के स्पंदन (भावक्रिया) रुक जाते है साथ ही योग जनित द्रव्य क्रिया भी रुक जाती है और आत्मा अपना शुद्ध रूप प्राप्त कर कर्म रहित हो जाता है। __ सोपायाणा निरादाणा विपाकेयरसंजुया । उपक्रमेण तघला निजरा जायए सया ॥९॥ अर्थ: आत्मा की भिन्न रूपों से कम की निर्जरा करता है। कभी वह निर्जरा उपादान सहित होती है. कभी ना कर्मों के अग्रहण मूलक होती है। कभी वह विपाकोदय के साथ होती है तो कभी केवल प्रदेशोदय वा हैं और कभी उपक्रम सहित तप से भी निर्जरा होती है। गुजराती भाषान्तरः આત્મા જુદાં જુદાં રૂપથી કમની નિર્જરા કરે છે. ક્યારેક તે નિર્જરા ઉપાદાન સાથે હોય છે, ક્યારેક નવા કમ અટકાવવાના રૂપમાં હોય છે, તો ક્યારેક તે વિપાકના ઉદયની સાથે હોય છે તો મારેક ફક્ત પ્રદેશની ઉદયવાળી હોય છે. અને ક્યારેક ઉપક્રમ સાથે તપથી પણ નિર્જરા થાય છે. अहलर्षि संवर तत्व के निरूपण के बाद निजेरा तत्त्व की व्याख्या कर रहे हैं। कर्म प्रदेशों का रसहीन होकर भात्मा से पृथक हो जाना निर्जरा है, उसके अनेक प्रकार हैं। प्रथम निर्जरा वह है जिसमें मूल हेतु को प्रहण किया गया है। जिसमें निर्जरा के रहस्य को समझा है और उसके प्राप्त किए जाने वाले साध्य मोक्ष का निश्चय किया गया है। कर्म के आगमन के हेतुभूत मिथ्यात्व मोह रूप कर्म की निर्जरा सोपादाना निर्जरा है। निर्जरा का दूसरा प्रकार है निरादाना अर्थात् जिसमें निर्जरा का मूल हेतु ग्रहीत नहीं है, जिसमें भव-परम्परा की समाप्ति का ध्येय नहीं ऐसे बाल आदि के द्वारा होने वाली निर्जरा निरादाना है। दूसरे शब्दों में सोपादाना निर्जरा सकाम निर्जरा है और निरादाना निर्जरा अकाम निर्जरा ।
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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