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नवम अध्ययन
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अथवा निरादाना का एक अर्थ यह भी हो सकता है कि आत्मा एक बार जिस कर्म की निर्जरा करे उसे भविष्य में कमी ग्रहण न करे नह भी कर्म के अग्रहण मूलक निरादाना निर्जरा है।
विपाकेतर संयुता आत्मा जिन कर्म प्रदेशों के विशाकामुभव रसानुभव छोडता है। वे त्रिपाकोदय वाले कर्म प्रदेश और उनका निर्जरा सविधाका निर्जरा है।
___ आत्मा कुछ कर्म प्रदेशों का अत्यन्त रसानुभव करके त्यागता है। वह प्रदेशोदय कहलाता है। उदाहरण के तौर पर क्लोरोफॉर्म सुंघा कर ऑपरेशन किया जाता है। उस समय वेदना अत्यल्प होती है वह वेदनीय कर्म का प्रदेशोदय है। ऐसी निर्जरा अदिपाका निर्जरा कहलाती है । उपक्रम और तप के द्वारा भी निर्जरा होती है । उपक्रम के अनेक अर्थ है। यीज बोने के लिए की जाने वाली क्षेत्र शुद्धि पूर्व तैयारी उपक्रम है। आयु का टूटना मी उपक्रम है । सम्यक् बीज बोने के लिए मिथ्यात्व मोह की निर्जरा उपक्रम निर्जरा । अन्य अर्थ ये आयांग होने पर कमी को आत्मा भोग करके क्षय करता है वह मी सोपक्रमिक निर्जरा है आभ्यंतर और बाह्य तप जिन कमों को रस विहीन करते हैं वह तपाजन्य निर्जरा है । तपाजन्य निर्जरा को बताते हुए अर्हतर्षि गाथा मोलते है :
संततं बंधए कम्मं निजरेड य संततं ।
संसारगाय जीवी विसेसी राघो मओ ॥१०॥ अर्थ :--संसारी आत्मा प्रतिक्षण कर्म बांध रहा है और प्रतिक्षण कर्मों की निर्जरा भी कर रहा है, किन्तु तप से होने वाली निर्जरा ही विशेष है। गुजराती भाषान्तर:
સંસારી આત્મા ક્ષણે ક્ષણે કર્મનું બંધન બની રહ્યો છે અને ક્ષણે ક્ષણે કર્મોની નિર્જરા પણ કરી રહ્યો છે. પણ તપથી થનારી નિર્જરા જ વિશેષ છે. ___संसारावस्थित आत्मा ऐसे प्रतिक्षण अनंत पुराने कर्मों की निर्जरा कर रहा है। किन्तु अनंत कर्म नए बांध रहा है। क्योंकि आत्मा अनुभूतिमय है उसका चेदन एक क्षण भी शून्य नहीं है । चाहे वह सातारूप में हो या असातारूप में वेदन तो है ही। पुराने वेदनीय कर्म तो विपाकोदय में आ रहे हैं और रस देकर समाप्त हो रहे हैं । और तो और कषाय के वीन परिणाम में भी आत्मा मोह कर्म की निजेरा घरता है। सूत्र में इसका निरूपण भाता है। ऊपर से यह जरा अटपटा तो लगता है कि कषाय परिणति में निर्जरा कैसे! उसका समाधान है कषाय मोह के उदय में ही तो श्राएगी और कषाय करने पर पूर्व संचित कषाय में मोह के कर्म विपाकोदय में आ कर रसहीन बनते हैं। फिर प्रश्न होता है कि निर्जरा होती है तो आत्मा मुक्त क्यों नहीं होती है। इसका उत्तर यह होगा कि आत्मा जो प्रतिक्षण जितने कों की निर्जरा कर रहा है उससे वे कर्म अनंत गुणित हैं; जो कि अभी अनुदय अवस्था में ही पड़े हैं। अतः सम्पूर्ण का के क्षय के विना मोक्ष संभव नहीं। दूसरा उत्तर महाकाश्यप दे रहे हैं: आत्मा शुभ या अशुभ कर्मों का विशकोदय प्राप्त करता है। अर्थात् वे उदय में आते है तो किसी निमित्त को ले कर ही पाते हैं। अज्ञानी आत्मा शुभ निर्मित पर राग करता है और अशुभ निमित पर द्वेष करता है। राग और द्वेष के कारण आत्मा पुनः नए कर्मों का उपार्जन करता है। जो कि निर्जरित कर्मों की अपेक्षा परिमाण में द्विगुणित या असंख्य गुणित भी हो सकते हैं। आत्मा ऐसा मूढ कर्जदार है जो कर्ज चुकाता है, किन्तु एक हजार चुकाता है और दस हजार का नया कर्ज फिर ले लेता है। कय मुक्त होगा? यदि ण होना है तो नया कर्ज लेना बन्द करे। और पुराना कर्ज अल्प रूप में भी चुकाए फिर भी एक दिन ऐसा आएगा जब वह पूर्णतः ऋणमुक्त हो जाएगा। इसीलिए पहले संवर तत्त्व का निरूपण है । आत्मा अपने आप को संवृत करे अर्थात् नया ऋण लेना बन्द करे, बाद में की गई निजराही उसे ऋण मुक्त कर सकती है । संवर बिना की गई निजेरा कोई मूल्य नहीं रखती है। क्यों कि वह तो अनादि से चली आ रही है, किन्तु निर्जरा भव-परम्परा को समाप्त करने में सहयोगी नहीं हो सकती; इसी लिए अतिर्षि ने कहा है "विसेसो उ तवोमओ' अर्थात् तप के द्वारा होने वाली निर्जरा महत्वशील है; क्योंकि उसके द्वारा निर्जरित कर्म आत्मा से पुन: कभी चिपकवे नहीं हैं।
अंकुरा खंघखंधीया अहा भवइ वीरुहो। कम्मं तहा तु जीवाणं सारासारतरं ठितं ॥ ११ ॥