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इ-भजवाई
अर्थ :- अंकुर से स्कंध बनता है, स्कंध से शाखाएँ कूटती हैं और वह विशाल वृक्ष बनता है। आत्मा के शुभाशुभ कर्म इसी प्रकार विकसित होते हैं
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गुजराती भाषान्तर:
અંકુરમાંથી ડાળી બને છે. ડાળીમાંથી શાખાઓ નીકળે છે. અને તે મોટો વૃક્ષ ( ઝાડ ) અને છે. આત્માન શુભ અશુભ કર્મોનો વિકાસ આવી રીતે થાય છે (આ જ પ્રમાણે થાય છે ).
छोटा-सा अंकुर एक दिन स्कंध से शाखा प्रशाखा से मुक्त हो विशाल वृक्ष हो जाता है। ऐसे ही अशुभ कर्म का छोटा-सा अंकुर यदि समाप्त न किया गया तो एक दिन विशाल वृक्ष का रूप धारण कर लेता है । अंकुर छोटा है ऐसा मान कर इन उसकी उपेक्षा कर जाते हैं, किन्तु यह उपेक्षा ही उसकी वृद्धि में सहायक होती है और वह दुर्निवार हो जाता है। इसी प्रकार शुभ संकस्य को इच्छा कार्यशक्ति का सिंचन मिलता है तो वह भी विराद रूप धारण कर प्रशस्त फलप्रद वृक्ष बनता है ।
कम्मो य उरो संछोभो खवणं तथा । बनिधत्ताणं वेयणा तु निकाइते ॥ १२ ॥
अर्थ :- बद्ध स्पष्ट और नित्त कर्मों में उपकने, उत्करें, संक्षोभ और क्षय हो सकता है। किन्तु निकाचित कर्म की वेदना अवदय होती है ।
गुजराती भावान्तर:
મહ્દ સ્પષ્ટ અને નિધત્ત કમીમાં ઉપક્રમ ( બંધાયેલા કમાને તોડવું ), ઉષ્કર (કર્મની સ્થિતિ આદિમાં વૃદ્ધિ કરવી), સંક્ષોભ (કર્મોના પ્રદેશમાં હલચલ) અને ક્ષય થઈ શકે છે. પરંતુ નિકાચિત કર્મની વેદના અવશ્ય થાય છે.
कर्मबन्ध के दो रूप हैं । कषाय की मंद परिणति में जो कर्म बंधते हैं उनका बन्धन शिथिल होता है। उनमें परिवर्त - संभव है । किन्तु जो कर्म कषाय की तीव्र परिणति में बाँधे जाते हैं उनमें किसी प्रकार का परिवर्तन संभव नहीं ।
जिन क्रमों में उद्वर्तन, अपवर्तन और संक्रमण संभव है उसे 'निधत्त' कर्म कहते हैं। कर्म बन्ध की वह शिथिल स्थिति जिसमें स्थिति और रस में हानि वृद्धि तथा उसी की अवान्तर प्रकृतियों में परिवर्तन संभव हो, वह 'निधत' कहलाती है। किन्तु जिसमें उद्वर्ननादि एक भी करण संभव न हो वह 'निकाचित' कर्म कहलाता है। आगम में इसके लिए रूपक भी आता है। तपी हुई सुइयों के समूह के सदृश 'निधत्त' कर्म हैं। उन सुइयों में परिवर्तन की गुंजाइश रहती है। किन्तु यदि उन्ही सूदयों को तपा कर धन से पीट कर एकमेव बना दिया जाए फिर उनका पृथक्करण असंभव सा है । इसी प्रकार जो कर्म तीन कषाय के द्वारा बांधे गए हैं; उनमें स्थितिधात, रसवात कुछ भी संभव नहीं है । उसे 'निकाचित' बंध कहते हैं ।
संक्षोभ :- कर्म - प्रदेशों में हलचल ।
क्षयण :---क्षय करना ।
आत्मा के साथ बद्ध स्पष्ट क्रमों में उपक्रम आदि संभवित है । अर्थात् उन में परिवर्तन भी हो सकता है और तप के द्वारा उनका क्षय भी हो सकता है । किन्तु निकाचित कर्मों को तो भोगना ही होगा ।
टीका : [: उपक्रमः उत्कर्षः च तथा संक्षोभः संक्षेपः क्षापर्ण बद्ध-स्पृष्ट-निवृत्तानां विनिहितानां भवति कर्मप्रदेशानां निकाश्विते च कर्मणि वेदना पीडा । अर्थ गवं ।
कसं जघा तोयं सारिज्जत अधा जलं ।
संविजा निदाणे वा पाचकम्मं उदीरती ॥ १३ ॥
अर्थ :---अंजली में भरकर ऊपर उठाया जाने वाला पानी और ( सार्थमाघ ) ले जाया जाता पानी धीरे धीरे क्षय होता जाता है, किन्तु निदान कृत कर्म अवश्य उदय में आता है।
१ उपक्रम - यद्ध कर्मों को लोहना उपक्रम है। उसका का दूसरा अर्थ कर्मों के बन्ध का आरंभ भी है। कर्म की स्थिति आदि में वृद्धि करना।
एकेरी (उस्कर )