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________________ नवम अध्ययन गुजराती भाषान्तर: અંજલીમાં ભરીને ઉપર લઈ જવાનું પાણી અને (સાર્થમાણ) તે લઈ જવાનું પાણી ધીરે ધીરે ક્ષય થતું જાય છે પરંતુ નિદાન-કર્મકૃત અવશ્ય ઉદયમાં આવે છે. कर्म-बन्ध के बाद उसका अबाधा काल विपाक काल पूर्ण होने के बाद शनैः शनैः वह कर्म उदय में आकर क्षीण हो जाता है। जैसे अंजल में भर पानी प्रतिकण एक एक बूंद गिरता जाता है वैसे ही यदि बद्धकर्म यदि निधन है तो क्षय होता जाता है। किन्तु निदान कृत कर्म तो अवश्य उदय में आता है। किसी फलशक्ति को ले कर किया जाने वाला संकल्प निदान है वह उद्य में आ कर रहता है। टीका:-उत्कृष्यमाणं यथा तोयं सार्यमाणं यथा जलं कर्म संक्षपयेत् । अन्यत्र निदाने परलोकं मधिकृत्य फलेप्सु पापं कर्मशेष उदीर्यति । अर्थ गतम् । अप्पा ठिती सरीराणं बहुं पाच तुफाई । पुवं यझिजते पावं तेण दुकरं तवो मयं ॥ १४ ॥ अर्थ :-देहधारियों की स्थिति अल्प है और पाप कर्म बहुत है साथ ही वे दुष्कर भी है। और पाप कर्म पहले भी बांधे जाते हैं। अतः दुष्कर तप की आवश्यकता है। गुजराती भाषान्तर: દેહધારિયોની સ્થિતિ અલ્પ છે અને પાપ કર્મ બહુ છે સાથે સાથે દુષ્કર પડ્યું છે. અને પાપકર્મ પહેલા પણુ બાંધવામાં આવે છે. તેથી કુકર તપની આવશ્યકતા છે. संयत साधक साधना काल में कोई विशेष कार्जित नहीं करता है फिर उसे तप की क्या आवश्यकता है। यह भी एक प्रश्न है । इसका उत्तर ऋषि देते हैं। देहधारियों की जितनी स्थिति है कर्मों की स्थिति उससे कई गुना अधिक है। साथ ही सभी कर्म इसी भव के नहीं है पूर्व जन्म के अनंत कर्म आत्मा के साथ हैं, अतः उन सब के क्षय के लिए साधक दुःखप्रद तप की भी साधना करता है। टीका:-भल्या स्थितिः शरीरिणो बहु र पापं दुष्कृतं भवति । पूर्व च बध्यते पाप तस्मात् तपो दुष्करं मतम् ॥ -अर्थ ऊपरवत् है । खिजंते पावकम्मानि, जुत्त-जोगस्स धीमतो। देसकम्मक्षयम्भता जायते रिद्धियोबह ॥ १५॥ अर्थ:-पुद्धि-शीलयुक्त योगी साधक पाप कर्मों को नष्ट करता है। आंशिक रूप में कर्म क्षय होने पर अनेक ऋद्धिया-लब्धियां प्राप्त हो जाती हैं। गुजराती भाषान्तर: બુદ્ધિશીલયુક્ત યોગી સાધક પાપકર્મને નાશ કરે છે. આંશિક રૂપમાંથી કર્મ ય થઈ જવાથી અનેક R-सिद्धि प्राH लय छे. धीमान् साधक विधि पूर्वक योग-निग्रह करता है। मनादि योगों के संगोपन से आत्मा कर्मों का क्षय करता है। अशेष कर्म क्षय होने पर आत्मा मोक्ष प्राप्त करता है, किन्तु आंशिक रूप से कर्म क्षय होने पर साधक जंघाचारणादि लब्धियां प्राप्त करता है। साधक की माधना का लक्ष्य ये हल्की फुल्की सिद्धियां नहीं है, ये तो दो पैसे के चमत्कार हैं। क्या साधक इतनी बबी साधना इन्ही चमत्कारों के पीछे गुमा वेगा? नहीं नहीं; साधक की साधना नमस्कारों के लिए नहीं होती। पर हो, सच्ची साधनों के पीछे ये हाथ बधेि चली आती हैं। टीका:-योगे युक्तस्य धीमतः पापकर्माणि क्षीयन्ते । यहम्यो पद्धय जायन्ते कर्मभान भयभूताः ॥ साधना में लीन साधक पाप कमी का क्षय करता है। आंशिक रूप से कर्म के क्षय होने पर अनेक प्रकार की ऋद्धियाँ उसे प्राप्त होती है।
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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