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________________ इसि-भासियाई विजोसहि णिवाणेसु, वत्यु-सिक्खा मतीसु य ! तवसंजभपयुत्ते.य विमद्दे होति पबओ॥ १६ ॥ - अर्थ :-तप-संयम में प्रयुक्त आत्मा क्रमों का विमर्दन करने पर विषौषधि की गहराई में प्रवेश करता है। दृष्टिवाद के वास्तु पूर्व तथा शिक्षा एवं पति से उसकार होता है। गुजराती भाषान्तर: તપસંયમમાં પ્રયુક્ત આમા કર્મોનું વિમર્દન કરવાથી વિપૌષધિના ઊંડાણમાં પ્રવેશ કરે છે. દષ્ટિવાદના વાસ્તુ પૂર્વ અને શિક્ષા તેમ જ ગતિથી તેને સાક્ષાત્કાર થાય છે. पिछली गाथा में बताया गया है कि संयमशील साधक कर्म क्षय के हेतु तप और साधना करता है। किन्तु आशिक रूप से कर्म क्षय होने पर उसे लब्धियां प्राप्त होती है। उन्हीं लब्धियों में से कुछ यहां दी गई हैं। औषध विज्ञान में की । गहराई में प्रवेश, अर्थात् ऐसी लब्धिप्राप्त साधक को औषधियों का अच्छा ज्ञान हो जाता है। साथ ही दृष्टिवादे के वास्तु पूर्व तक उसे ज्ञान होता है । अथवा दास्तु भवन निर्माण कला का ज्ञान होता है। साथ ही वह साधक शिक्षा शास्त्र में और गति में निपुण होता है। किसी की गति के आधार पर उसका इतिहास जान लेता है अथवा चारों गतियों का विशिष्ट स्वरूप वह जानता है। टीकाकार कुछ भिन्न मत रखते हैं : टीका:-कश्चित् तपःसंयमप्रयुक्तस्य त्रिमर्दो विरोधो भवति, तदा विधीषधिनिपानेषु दृष्टिवादवस्तुशिक्षागतिषु च तस्य प्रत्ययः । और संयम में प्रथम साधक को साधना में कुछ विमर्द विरोध स्खलना होती है तब विद्या औषधि निपान गहराई दृष्टिवाद वस्तु शिक्षागति में उसका प्रत्यय ( विश्वास ) साक्षात्कार होता है। शुद्ध की और बड़ने वाला साधक भाव धारा की मंदता के कारण शुभ में रुक जाता है तभी उसे ये सिद्धियां प्राप्त होती हैं। पर शुद्ध की ओर बढ़ने वाला इन सिद्धियों के व्यामोह में कभी नहीं फंसता है। प्रोफेसर शुनिंग लिखते है जिसमें साधुत्व और आमसंयम है वहाँ चमत्कार जमी जुटी आदि में श्रद्धा भी है। यह गति के उपयोग में पूर्व ज्ञान का उपयोग करता है और संघर्ष को बह पूर्व ज्ञान वस्तु पूर्व से समाप्त करता है। दुक्खं खवेति जुत्तप्पा पावं मीसे वि बंधणे। जधा मीसे वि गाहमि विसपुण्फाण छहणं ॥ १७ ॥ अर्थ:-ये लब्धियां पाप में बन्धन कम होती हैं। अतः युक्तात्मा इनके (लब्धियों के द्वारा कभी दुःख का क्षय भी करता है। जैसे मिश्रित फूल ग्रहण करने पर कुशल व्यक्ति विष फूल छोड कर अच्छे फूलों को ग्रहण करता है। इसी । प्रकार योग्य साधक लब्धियों के दुरुपयोग को रोक कर उनके सदुपयोग के द्वारा दुःख का ही क्षय करता है। गुजराती भाषान्तर :--- આ લધિ પાયમાં બંધન રૂપ હોય છે. તેથી યુક્તામા તેઓની (લબ્ધિયોની) દ્વારા કયારેક દુઃખનો થાય પણ કરે છે. જેવી રીતે મિશ્રિત દૂધ લીધા પછી કુશળ વ્યક્તિ ઝેરી ફૂલને છોડી સારાં ફૂલોને ગ્રહણ કરે છે, તેવી જ રીતે યોગ્ય સાધક લબ્ધિના દુરૂપયોગને રોકીને તેના સદુપયોગ દ્વારા દુ:ખનીજ ક્ષય કરે છે. तलवार शत्रु से रक्षा भी करती है और यही तलवार कभी अपना संहार भी कर सकती है। इसी प्रकार तप के द्वारा पाई हुई लब्धियां यदि शासन हित के उपयोग में आती हैं तो पुण्यरूपा है। अन्यथा पाक्ति व्यक्ति को गद्धत भी बन सकती है और उसका दुरुपयोग भी हो सकता है। दुरुपयोग में गई हुई शक्ति पाप का ही बन्धन करती है। वन में सुन्दर स्वास्थ्यप्रद पुष्प भी होते हैं और विष पुष्य मी होते हैं, किन्तु कुशल माली विषपुष्पों को छोड कर अमृत १ आत्मसाक्षात्कार के द्वारा प्राप्त दिव्य शक्ति लधि कहलाती है। जन साधारण जिसे चमत्कार का कर चमकूत होता है किन्तु अध्यात्म साधना में यह बहुत नीचे की वस्तु है। सम्यक श्रुत का बारहवां अंग दृष्टिवाद है। श्रुत साहित्य का विशालतम कोष जिसमें १४ पूर्वो का समावेश होता है। जिसे पाकर मुनि मुतकेवलिपद पाता है । जिसके द्वारा साधक को तत्त्वातस्व के निर्णय में विशुद्ध पूष्टि प्राप्त होती है। - -- -
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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