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नवम अध्ययन
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पुष्प का ग्रहण करता है। उसी प्रकार आत्मज्ञबुलब्धियों के द्वारा होनेवाली हानियोंसे बचे। लब्धि वह तलवार है जो यदि सीधी चली तो दुःखों का क्षय कर सकती है। शासन की रक्षा में किया गया लन्धि का उपयोग शासन को संकटों से बचाएगा, हजारों साधकों के जीवन और उनके समाधि की तथा प्रतिष्ठा की रक्षा करेगा। किन्तु यदि किसी से अपने पैर का प्रतिशोध लेने में लब्धि का प्रयोग किया गया तो गलत ढंग से किया गया यह प्रयोग विकाश नहीं विनाश करेगा । अतः साधक लब्धि पाने के बाद उसके उपयोग में पूरी सावधानी रखे ।
टीकाकार का मत इस तरह है :
सकृतेन च दुष्कृतेन च मिश्रमपि सतिकर्म बन्धने मुक्कामा साधुः पापं दुःख क्षपयति यथा मित्रेऽपि हिताहित. मिश्रितेऽपि पुष्पाणां ग्राहे संग्रह विश्वरित प्रपाणि चरातिमानि चयवस्ति ।
सत्कार्य और असत्कार्य के द्वारा शुभाशुभ रूप मिधित कमों का बन्ध होता है। किन्तु शुभाशुभ अध्यवसायों के द्वारा कम का बन्ध मित्र होता है। कषाय की मन्द अवस्था में शुभ का बन्ध विशेष और अशुभ का बन्ध अल्प होता है। कषाय की तीवावस्था में यदि कषाय प्रशस्त कषाय है तो अशुभ के साथ आत्मा शुभ का भी मन्ध
। है1 मन्द कषायी आत्मा देव गति का बन्ध करता है। किन्तु वहाँ भी वृत्तिजन्य दुःख तो मौजूद है और रम्यक्त्वी आत्मा नरक में भी शान्तिका अनुभव करता है। वहाँ अशुभ के साथ शुभ का उदय है। किन्तु युक्त आत्मा अशुभ को छोड़कर शुभ और शुभ से शुद्ध की ओर प्रवृत्त होता है। जैसे राम्मिश्रित हिताहित में से हंस युद्धि मनुष्य हित का ही प्रहण करता है । विष पुष्पों से मिश्रित पुष्प समूह में से कुशल माली अच्छे पुष्यों का ही चयन करता है।
प्रोफेसर शुबिग कहते है किः-जैसे अंजली में आए हुए फूलों में से जहरी पुष्पों को फेंक दिया जाता है, उसी प्रकार युझियुक्त आत्मा अशुभ कर्मों के असर को समाप्त कर देता है।
___ यहाँ हमें प्राचीन युग की सांस्कृतिक झांकी दिखाई देती है। प्राचीन युग में शत्रु के संहार के लिए विषमय पुध्य तैयार किए जाते थे जिनके सूंघते ही शत्रु मर जाए। साथ पिच कन्या भी तैयार की जाती थी इसका अन्य अध्याय में उल्लेख है।
समसं च दयं चेव सममासज्ज दुल्लहं ।
ण प्पमापज मेधावी मम्मगाहं जहारियो ॥ १८ ॥ अर्थ :-मेधावी साधक दुर्लभ सम्यकल और दया को सम्यक् रूप में पा कर प्रमाद न करे, जैसे शत्रु के मर्म को प्य लेने के बाद शत्रु विलम्ब नहीं करता है । गुजराती भाषान्तर:
બુદ્ધિમાન સાધકે કુલભ સમ્યકત્વ અને દયાને સમ્યક રૂપમાં પ્રાપ્ત કરીને, પ્રમાદ કરવો ન જોઈએ. જેમ પોતાના શત્રુના મર્મસ્થલ ને જાણી લીધા પછી શત્રુ જરા પણ વિલંબ કરતું નથી.
सम्यक्स्य और चारित्र-दया को पा कर साधक प्रमाद न करे । अप्रमाद के लिए यहां पर सुन्दर रूपक दिया गया है । जैसे युद्ध के मैदान में शत्रु का मर्म प्राप्त हो जाता है उसके बाद उसका वैरी एक क्षण भी विलम्ब नहीं करता। एक क्षण का विलम्ब ही विजय को पराजय में बदल सकता है। किन्तु वे गुम रहस्य हारती हुई सेना के हाथ में लग जाते हैं और उसका अविलम्ब उपयोग कर लिया जाए तो पराजय के आंसू के स्थान पर बिजन्म की मुस्कान दौड जाएगी।
हवत्तिक्लए दीयो जहा चयति संतति।।
आयाण-बंध-रोइंमि तहप्पा भव-संतई ॥ १९ ॥ अर्थ :--तेल और मनी (वाट ) के क्षय होने पर जैसे दीपक दीपकलिका रूप संतति को क्षय करता है, उसी प्रकार आत्मा आदान और बम्प का अवरोध करने पर भव परम्परा को क्षय करता है।
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१-प्रशस्त राग की भांति प्रशस्त देष भी संभावित है 1 अन्याय के प्रति आनेवाला क्रोध प्रशस्त देष है। स्वार्थ भाष को लेकर आनेवाला क्रोध अप्रशस्त द्वेष है।