SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इस-आसियाई अर्थ :- संवर और निर्जरा पुण्य पाप के विनाशक हैं। अतः साधक सुंदर और निर्जरा का सम्यकू प्रकार से आचरण करे । ४२ गुजराती भाषान्तर : સંવર અને નિર્જરા પુણ્ય-પાપના વિનાશ છે. તેથી સાધકે સંવર અને નિર્જરાની સારી રીતે આરાધના કરવી જોઈ એ. आत्मा को कर्म से मुक्त करना है। उसके लिए आगम में तुन्दर रूपक दिया है। जीवन एक सरोवर है, जिसमें और पाप का कटु, मधुर जल भरा है। उसे जल से खाली करना है । किन्तु जब तक उस जल आगमन के द्वार खुले है तब तक तालाब नहीं सूखेगा। आगम उसको सुखाने का तरीका बताता है। पुण्य I जहा महातलाग्रस्स सनि जलागमे । गाता कम्भेण सोसणा भवे ॥-उत्तरा० भ० ३२ गा. ५ जैसे महान् लालाब की मोरियो बन्द कर दी जाये और बाद में उसका पानी उलीचा जाय और ताप की व्यवस्था की जाय तो वह महा तालाब भी सूख जाएगा। आत्मा तालाब में पुण्य पाप का आश्रव आगमन का द्वार रोकना संबर है और उसके बाद पानी का उलीचना निर्जरा हैं । संबर की एक सुन्दर परिभाषा द्रव्य-संग्रह में मिलती हैं । मर्दा सेवर के दो रूप बताए गए हैं- एक भाव-संवर, और दूसरा द्रव्य-संवर । परिणामो जो कम्मासवरोहणे हेव । सो भाष-संवरो खलु दग्वास्रव - रोहणे अण्णो ॥ द्रव्यसंग्रह गा० ३४ कर्मों के आश्रव को रोकने में सक्षम आत्मा का चेतन परिणाम भाव संवर 1 और इव्याधव को रोकने वाला द्रव्य-संवर है। निर्जरा के भी दो रूप बताए हैं। जय कालेन तवेण्यमुत्तर संक्रम्मन्युमालं जेणं । भावेण सढदि या तस्सडणं चदिनिजरा दुबिधा ॥ - द्रव्यसंग्रह ३६ आत्मा का वह भाव, निर्जरा है, जिसके द्वारा कर्म-पुल फल देकर नष्ट हो जाते हैं। और यथा काल से अथवा तप के द्वारा कर्म - गुगलों का आत्मा से पृथक्करण होना द्रव्य - निर्जरा है। आत्मा की वह विशुद्ध भाव धारा जिसके द्वारा कर्म परमाणु आत्मा से पृथक् होते हैं वह भाव-निर्जरा है । द्रव्य-निर्जरा के भी दो प्रकार है--- प्रथम कर्म जितनी स्थिति के साथ बंधा है उसकी स्थिति क्षय होने पर वे कर्म आत्मा से पृथक् होते ही हैं यह यथाकाल निर्जरा कहलाती है । तथा तप के द्वारा कर्म को उदीर्ण करके उन्हें स्थिति के पहले प्रदेशोदय के द्वारा भोग कर नाश कर देना दूसरे प्रकार की निर्जरा है । मिच्छत्तं अनियत्ती व पमाओ याषि गहा । कसाया व जोगाय कम्मादाणस्ल कारणं ॥ ५ ॥ अर्थ :- मिथ्यात्व अनिवृत्ति, अनेक ( पंच ) प्रकार का प्रमाद, कषाथ और योग कर्म ग्रहण करने के कारण हैं । जिन निमितों को पाकर आत्मा कर्म ग्रहण करता है के पांच हैं । गुजराती भाषान्तर : મિથ્યાત્વ, અનિવૃત્તિ, અનેક પાંચ પ્રકારના પ્રમાદ, કષાય અને યોગ કર્મ આવવાના કારણો છે, જે નિમિત્તોને લીધે આત્મા કર્મનું ગ્રહણ કરે છે તે પાંચ છે. ( પાંચ નિમિત્તોને લીધે આત્માને કર્મ લાગે છે) तत्वार्थसूत्र में आचार्य उमास्वाति कहते हैं : मिथ्यादर्शनाविरत प्रमादकापाययोग बन्धहेतवः ॥ - तत्वार्थ सूत्र म. ८ सू. १ आत्मा से कर्म को बन्ध होने में ये पांच मुख्य हेतु हैं। इन्हें पंच आश्रव भी कहा जाता है।
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy