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नवम अध्ययन अर्थ :-पूर्व कृत पुण्य और पाप संसार संतति के मूल है । पुण्य और पाप के निरोध के लिए साधक गम्यक् प्रकार से विचरे। गुजराती भाषान्तर:
પૂર્વે કરેલા પુણ્ય અને પાપ સંસાર સંતતિના મૂળ છે. પુય અને પાપના અટકાવ માટે સાધકે સફ પ્રકારથી વિચરવું જોઈએ. पुण्य और पाप दोनों बन्ध-व्हेतुक है। क्योंकि, दोनों आधव है। वाचक मुख्य उमास्वाति भी कहते हैं: -
समाश्रयः शुभः पुण्यस्य,
अशुभः पापस्य ।।-तस्वार्थ . ६ सू. २,४ पुण्य और पाप दोनों आश्रय है । एक शुभ है, और दूसरा अशुभ । एक सोने की बेडी है, और दूसरा लोहे की। बन्धन दोनों में हैं। एक से खीय सुषमा मिल सकती है, पर शाश्वत शान्ति नहीं। यात्री बन से पार होता है, महकते गुलाब उसके मन को सुरभित बना देसे हैं, काटे पैर में नुम कर तन और मन को दुःखित बना सकते हैं। कांटों में तन उलझता है, तो फूलों में मन उलझता है। दोनों उलझन ही हैं और दोनों उलझने पथ के बन्धन ही है। दोनों ही लेय से दूर है। फूलों से मुगन्ध भले ही मिल जाय किन्तु मंजिल को निकट लाने में तो वह असमर्थ ही है । लक्ष्य का साधक यात्री जितना ही शूल से बचेगा उतना ही या उससे भी अधिक फूल भी बचेगा, क्योंकि शूल की चुभन थोड़ी ही देर रोकती है, किन्तु फूल की सौरभ मन को बांध लेती है और मन का बन्धन तन के बन्धन से अधिक मजबूत होता है।
अतः पुण्य और पाप दोनों बन्धन ही हैं, वे चाहे फूल के हो या शूल के । मोक्षमार्ग में दोनों ही बाधक है । साधक को दोनों ही यन्धन तोड फेकना है।
पुण्णपावस्स आयाणे परिभोगे यावि देहिणं ।
सतई-भोग-पाउगं पुण्णं पोचं सयंकडं ॥ ३ ॥ अर्थ:-देहधारी आत्मा को पुण्य पाप के आदान-प्रहण और परिभोग में योग्य वस्तुओं की परम्परा प्राप्त होती है. किन्तु वह स्वकून पुण्य और पाप फल स्वरूप है। गुजराती भाषान्तर:
દેહધારી આત્માને પુણ્ય પાપના આદાન, પ્રહણ, અને ઉપભોગમાં અયોગ્ય વસ્તુઓની પરંપરા પ્રાપ્ત થાય છે, પરંતુ તે પુણ્ય અને પાપના ફલસ્વરૂપ છે.
पुण्य और पाप के चिपाक रूप में प्राणी को शुभ या अशुभ वस्तुओं की प्राप्ति होती है। किन्तु पुण्य के मीठे स्वादु फलों के भोग के समय उसका अह बोलता है, कि मैं ने अपने श्रम की बुन्दों के बदले इसे पाया है। दूसरे को इसे छिनने का क्या अधिकार है। यदि किसी मुकद्दमे में सफलता मिल जाएगी तो कहेगा कि मेरी बुद्धि से सफलता प्राप्त हुई है। किन्तु यदि हार मिलती है तो वह वकील को दोष देगा, गवाह की गलती निकालेगा या फिर भगवान के मस्तक पर पार थोपेगा।
जैन दर्शन मानव को स्वावलम्बन का संदेश देता है । संतति और सम्पत्ति के लिए भिखारी बन कर क्यों किसी के सामने गिडगिडाता है, क्यों हाथ फैलाता है, तेरा पुण्य कोष भरा होगा तो मिलेगा ही। दूसरी ओर दर्शन की यह देन मानव के दिमाग से अई का नशा भी दूर करता है। तेरे पुण्य का यह कल्पवृक्ष तुझे मीठे फल दे रहा है। तेरा अपना कुछ नहीं, यदि मुण्य का कल्पवृक्ष सूख गया तो सब कुछ समाप्त है । अतः इसे सेवा के जल से सिंचन करता जा ।
दूसरी ओर अशुभोदय के समय मानव युरी तरह से छटपटाता है और अशुभोदय जिस निमित्त आगे आता है, आत्मा उसी निमित्त पर शपटता है, आक्रोश करता है और चीखता-चिल्लाता है। उस निमिन को दुःख का मूल मान कर समाप्त करने की चेष्टा करता है। किन्तु कर्मवाद कहता है कि जिस विष फल से तू भागना चाहता है उसके बीज एक दिन तेरी आत्मा ने बोए थे। फिर दूसरे पर रोष और दोष क्यों ?
। संवरो निजरा व पुण्ण-पावधिणासणं ।
संबर निजरं चेव सब्वहो सम्ममायरे ॥४॥