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________________ पति-आसियाई परिभवणाई, आगडुणाई, अण्णय राहूं च दुक्खदोमणस्सा हूं पश्चणुभवमाणा अणाइयं अणवदग्गं दीमद्धं चाउरंत संसारसागरं अणुपरियति भाई की मृत्यु, बहन की मृत्यु, पुत्र पुत्री पत्नी की मृत्यु, और दूसरे स्वजन परिजन की मृत्यु या उनका दारिद्र्य, दुर्भोजन, उनकी मानसिक चिन्ताएं, अप्रिय का संयोग और प्रिथ का वियोग, अपमान, घृणा और पराजय तथा और भी अनेक दुःख दुश्चिन्ताओं का अनुभव करते हुए आत्मा अनादि, अनन्त, दीर्घ मार्गशील चातुरन्त संसार सागर में परिभ्रमण करते हैं। ४० गुजराती भाषान्तर : ભાઈ, બહેન, પુત્ર, પુત્રી, પતિ, પત્ની વગેરેનું મરણ અને બીજા દારિદ્રય, માનસિક ચિન્તાઓ, અપ્રિયનો સંયોગ અને પ્રિયવસ્તુનો વિયોગ, અનેક દુઃખ ખરામ ચિન્તાઓનો અનુભવ કરતાં અનાદિ, અનંત ચીર, પરિભ્રમણ કરે છે. कम्मुणा पही खलु भो जीवा नो आगच्छिहिति हत्थच्छेयणाणि ताई चैष भाणियव्यारं जाव संसारकंतारं विवइत्ता सिवं मयल-मरूय-मक्खयमाहमणराव सासयं ठाणमन्भुवया चिति । अश्री:- कर्महीन आत्मा संसार में पुनः नहीं आती हैं। हस्तच्छेदनादि उपर्युक्त दुःख उनके लिए समाप्त हो जाते हैं । संसार के मीह बन को पार कर शिव, अचल अरुज, अक्षय, अव्याबाध, पुनरागमन रहित और शाश्वत स्थान को पा लेते हैं। સ્વજનો પરિજનોનું મરણ અથવા તેમનું અપમાન, ઘણા અને પરાજય તથા વધુ માર્ગશીલ સંસાર રૂપી સાગરમાં આત્મા કર્મહીન આત્મા સંસારમાં ફરીથી આવતો નથી. હસ્ત છેદનાદિ ઉપર કહેલા દુઃખ તેને માટે સમાપ્ત થઈ જાય છે. તે સંસારરૂપી ભયંકર જંગલને પાર કરીને શિવ, અચલ, અરૂજ, અક્ષય, અવ્યાબાધ, પુનરાગમન રહિત અને શાશ્વત સ્થાનને પ્રાપ્ત કરે છે. कम्ममूलमनिव्वाणं संसारे सव्वदेहिणं । कम्ममूलाई दुखाई कस्ममूलं व जम्मणे ॥ अर्थ :-- संसार के समस्त देहधारियों का भ्रमण कर्म जन्य है । समस्त दुःखों की जड कर्म है और जन्म भी कर्म मूल है। સંસારના સમસ્ત દેહધારિયોના ભવભ્રમણનું ભુંગમસ્થાન કર્મ છે. સમસ્ત દુઃખોની જડ (મૂળ) કર્મ છે; અને જન્મ પણ કર્મનું જ મૂળ છે. 8 जब तक लौह पिंड में अग्नि तत्त्व है तब तक उसे घन का प्रहार सहना ही पडेगा । जब तक कर्म है तब तक अशान्ति के प्रहार आत्मा को राहने ही पडेंगे। जब तक आत्मा पर राग और द्वेष की चिकनाहट रहेगी, तब तक कर्म रज उससे अवश्य ही चिपकेगी। बाजार में धूल उड़ती है तो नए कपडों पर भी लगती है और पुराने स्निग्ध कपड़े पर मी चिपकती है । परन्तु नए कपड़े पर लगी मिट्टी शीघ्र ही दूर हो सकती है। जब कि चिकनाहट वाले कपडे की रज बिना साबुन और पानी के दूर नहीं हो सकती। इसी प्रकार योग रूप हवा से कर्म धूल उड़ती है, किंतु आत्मा पर कषाय की चिकनाहट होने पर वह मजबूती से चिपकी रहती है और कषाय की विकाश रहित आत्मा पर कर्म रज अधिक ठहरती नहीं है, किन्तु कषाय आत्मा कर्म से वेष्टित हो कर संसार में भव- परम्परा बढ़ाती है। आचार्य उमास्वाति कहते हैं -! सकषाय वाजीकर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते संबन्धः । तस्यार्थ . ८ सू. २ और ३ सकषाय परिणति से आत्मा कर्म योग्य पुलों को ग्रहण करता है वह बन्ध है । संसार संतई भूलं पुण्णं पार्क पुरेकर्ड । पुष्पावनिहाय सम्मं संपरिव्व ॥ २ ॥
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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