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धीसवाँ अध्ययन जैसे दंड के आदि मध्य और अन्त है, इसी प्रकार शरीर की आदि है, मध्म है और अन्त है । अथवा दंड के आदि मध्य
और अन्त में रही हुई प्रन्थियौँ ही उसके विकास की हेतु है । इसी प्रकार शरीर के आवि मध्य और अन्त में रही हुई विशेष प्रन्थियाँ ही उसके विकास की हेतु हैं। इसके अतिरिक्त और कोई तय नहीं है।
इस प्रकार देह को ही सब कुछ मान लेने पर भव-परम्परा का स्वतः उच्छेद हो जाता है। क्योंकि देह हमारी आंखोंके सामने ही चिता में भस्म हो जाती है । उससे परे दूसरा कोई तत्व नहीं है। फिर शुभाशुभ कर्म जैसी कोई वस्तु नहीं रहेगी। आत्म-तत्व को अस्वीकार कर ही पुग्य, पाप और साधनाद समस्त किया एक विना की शून्य हो जाती है। उसका कोई मूल्य ही नहीं रह जाता है । इसीलिये देहात्मवाद समस्त अदृष्ट तत्वों को मानने से इन्कार करता है।
टीका:-इंडोस्कटो नाम यो दंष्टान्नाच-मध्या-चसानानां प्रज्ञापनया समुदयमानं शरीरमित्येताभ्यभिधानानि क्याहरन् नास्ति शरीरात् परंजीयेस्येतेन प्रवादेन च भवगतिव्यवच्छेदं वदति । गतार्थः ।
प्रोफेसर शुचिंग लिखते हैं कि जो लकडी का दृष्टान्त देता है, लकडी का आरम्भ मध्य और अन्त बतलाता है, वह केवल समुदय मात्र है बह शरीर में आत्मा को भिन्न नहीं मानता है। अतः नष्ट जन्म रूप में पुनर्जन्म के व्यवच्छेद का प्रतिपादन करता है।
से किं तं रजुकले ? । रजुक्कले णाम जे णं रजुदिटुंतेणं समुदयमेत्तपण्णायणा |
पंचम भूत-खंडमेत्तभिधाणाई; संसारसंसतीवोच्छेयं वदति, से तं रज्जुकले ॥२॥ अर्थः-प्रश्नः रजूरकल क्या है।
उत्तर:-रजत्कल बह है जिसके द्वारा जो रज के दृष्टान्त से समुदय मात्र की प्ररूपणा करता है। यह जीवन पंचमहाभूतों के स्कन्ध का समूह मात्र है। इस प्रकार जो संसार संमृति परंपरा का उच्छेद करता है वह रज्जुत्कट है।
प्रश्न:-२ शुंछ ?
ઉત્તર:–૨ાજીકલ એ છે. જેના મારફત રજાના દાત્તથી સમૃદય માત્રની પ્રરૂપણાં કરે છે આ જીવન પાંચ મહાભૂતોના સ્કલ્પને સમુહ છે, આ રીતે જે સંસાર પરંપરાનો ઉછેર કરે છે. તે જિજૂઉત્કલ છે.
कुछ दार्शनिक आत्मवाद के प्रतिपादन के लिए रजु का उपमान दिया करते हैं । रजु रस्सी क्या है ? धागों का समूह ही रज है। इसके अतिरिक्त रस्सी का अस्तित्व ही कहां है। इसी प्रकार जीवन क्या है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पंच महाभूतों का समुदय (समूह) ही जीवन है । जब तक ये समवेत है तब तक ही जीवन है । घडी के छोटे बडे सभी पुर्जे मिल कर चलते हैं तभी तक कहा जाता है कि घही चलती है । उसमें से एक नन्ही-सी खील भी निकल जाती है तो घडी बन्द हो जाती है । इस प्रकार यह उत्कट वादी संसार संसृति का उच्छेद करता है। किन्तु उसके सामने हमारा यह तर्क है कि पंच महाभूत हैं, तभी तक जीवन है । तो मृत शरीर में कौन-सा तत्त्व कम हो गया है। यह क्यों नहीं खाता, क्यों नहीं बोलता ? आप कहेंगे कि वायु तल नहीं है, तो पंप से हवा भर दीजिए: वायु है फिर तो वासप्रक्रिया चालू हो जानी चाहिए । यदि आप कहते हैं, कि तेज तत्व का अभाव हो मया है तो बिजली का करेट छोड दीजिए। फिर तो उसे चल देना चाहिए 1 बिजली के करंट से शव का चलना तो दूर रहा बह करवट भी नहीं बदलेगा। बिजली उसे जला भले ही इाले, पर उसमें जीवन नहीं डाल सकती है। फिर कौन मर गया? कौन-सा तत्व निकल गया जिसके अभाव में आप उसे मृत घोषित करते हैं । शरीर के रूप में पृथ्वी तत्व उपस्थित है, पानी है ही, आकाश सर्वव्यापी है, फिर अभाव किस चीज का है? आप कहेंगे कि वह सूक्ष्म प्राण वायु चला गया, जो कि समस्त जीवन शक्ति का केन्द्र या तो आप जिसे सूक्ष्म प्राण वायु मानते हैं वही हमारी दृष्टि से अतीन्द्रिय आत्मा है। जिसके अभाव में जीवन की क्रिया बन्द हो जाती है।
पर देहात्म-बादी इस मध्यान्ह के सूर्य की भांति चमकते हुए सत्य को स्वीकारने से इन्कार कर देते हैं।
टीका:-रज्जूरकटो नाम रज्जुस्याम्तेन समुदयमानशरीरप्रज्ञपनया पंचमहाभूतस्कन्धमानं शरीरमित्येताम्यभिधानानि व्याहरन् संसारसंसृतिष्यबस्छेदं पदति । गतार्थः । · · से कि त तेणुकले ? । सेणुक्कले णाम से णं अण्णसत्यदिटुंतगाहेहिं सपाखुभावणाणिरए "मम से पत"मिति परकरुणच्छेदं चदति, से तं तेणुकले।
अर्थ :-प्रश्नः भगवन् । तेणुकूल स्नोत्कट किसे कहते हैं ।