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________________ ૨૦૨ इसि-आसियाई गए जब तक उनके परित्याग का सूचना नहीं किया जाता तब तक प्रस्तुत सूत्र में मूलभूत दृष्टि के साथ सामंजस्य नहीं बैठ सकता है। स्थानांग सूत्र में पंच उत्कलों का नामोटेख मिलता है। वहां पर उसका विस्तार नहीं है और न ऐसी परम्परा ही है। किन्तु टीकाकार मलयगिरि परम्परा के अभाव में उसके भावार्थ से इतना खल्प परिचय रखते हैं कि उत्कलति के साथ उत्कल को प्रस्तुत करते हैं । और बुद्धियति तथा रज का रैम के साथ फिर से लिखते हैं। जो यथार्थतः कहा गया है वह निःसंदेह उत्कल है। टीका:- उत्कटाः पंच प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-दंदोत्कटो रजस्कटः स्तेनोरकटः देसोत्कटः सर्वोत्कटः । गतार्थः । से कि त दंडकले । दंडकले नाम जेणं दंउदिटुं तेणं आदिलमज्झवसाणाणं पण्णवणाए समुदय मेसाभिधाण णस्थि सरीरातो परंजीयोसि भयगतियोच्छेय वदति, से तं दंडकले। अर्थ :-प्रश्न:-हे भगवन् । दंड तत्कट किसे कहते है। उत्तर:-दंड-उत्कट उसे कहते है जिसके द्वारा आदि, मध्य और अन्त में रहे हुओं की प्ररूपणा अर्थात् निरूपण की जाती है। यह समुदय मात्र अमिधान है शरीर से भिन कोई आत्मा नहीं है। इस प्रकार जो भव-परंपरा के उच्छेद की बात कहता है वह दंडोत्कट है। प्रश्न:- सन् ! नेपामा भावे छ ? ઉત્તર:–ડ ઉત્કલ તેને કહે છે જેનાથી પૂર્વ, મધ્ય અને અન્તમાં રહેલાનું નિસ્પણ કરવામાં આવે છે. આ સમુદાયાત્મક નામ છે. શરીરથી કોઈ બીજે આત્મા નથી. આ પ્રકારે જે ભવપરંપરાના નાશની વાતો કરે છે તે ડોસ્કલ છે. देवात्म वादी दर्शनकार देह में ही आत्मा का अस्तित्व मानते हैं। उससे परे नहीं । जीवन क्या है? इसके उगर में वे यही कहते हैं कि मानव | तूं कुछ नहीं पंच भूतों का समुदाय मात्र है । विराट् सागर ने कुछ जल कण दिए, अग्नि तत्व ने तुझे ऊष्मा दी, वायु ने तुझे प्राण दिये, वनस्पति तेरा आहार है, आकाश तेरा वितान है और पृथ्वी तेरी शय्या है। यही सब मिल कर तूं है। इससे परे तेरा कुछ अस्तित्व नहीं है। देह के विकास के साथ तेरा विकास है और देह के बिनाश के साथ तेरा बिनाश है। देह के भस्म होने के बाद कौन है? क्या है। इसे आज तक कोई पता नहीं पाया है। शास्त्रों के नाम से जो कुछ लिख दिया गया है वे रंगीन कल्पना के महल है। खप्न के सुनहरे महलों से अधिक उनमें सच्चाई नहीं है । और ताश के महल से अधिक उनमें स्थिरता नहीं है। खाओ पियो और मौज करो। चार्वाकदर्शनकार की वाणी बोलती है: "यावजी सुखं जीवेत् मणं कृत्वा घृतं पिबेत् । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमन कुतः" । - "जब तक जीओ तब तक सुख से जीओ" इस में किसी के दो मत नहीं हो सकते । कोई भी दर्शनकार यह नहीं कहता है कि रोते रोते जीवन बिताओ। किन्तु किसी ने चार्वाक दर्शनकार से यह पूछा, कि सब कोई सुख से ही जीना याइता है, किन्तु यह कैसे संभव है ? पेट में तो चूहे कृदे और सुख की छह में लेटे रहें 1। उसने कहा कि ऋष्ण लाओ और घी पिओ।" य मी ठीक है, पर ऋणदाता मांगने आएगा तो? "उसको उत्तर देगी तुम्हारी लाठी; घी खा पीकर पुष्ट बनो और जो पैसा मांगने आवे तो उससे लाठी से बात करो। दुबारा फिर कभी वह तुम्हारी तरफ देखेगा भी नहीं।" यह तो ठीक है, यहो पर तो साठी फैसला कर देगी । पर एक दिन जीवन-लीला समाप्त होने पर जब हम रवाना होंगे तब कौन फैसला करने आएगा। चार्वाक प्राचार्य बोले कि बस, यही तो तुम्हारा अज्ञान है । कैसा परलोक और कैसी दूसरी दुनियो। । सब झूठे सपने हैं।। छास्तव में देह की राख बनने के साथ देही की भी राख बन जाती है। फिर कौन आता है और कौन जाता है । यह देहात्म-वाद ही है । जैन दर्शन इसे तज्जीव तच्छरीर वाद के नाम से पहचानता है। राजा प्रदेशी पूर्व जीवन में इसी वाद में विश्वास करता था। यहां इसी देहात्म-दाद का निरूपण है । कुछ दार्शनिक दंड के दृष्टान्त से देहात्म-वाद से प्रतिपादित करते हैं। सति पंच महभूता इह मेगेसि आहिता । पुढकी आऊय तेऊ य तहा वाउ मागास पंचमा। एए पंचमहन्भूया सेम्भो एगोत्ति आहिया । अह सेसि विणाग विणासो होह देहिणो । सूय. शु. १ अध्ययन १ गाथा १५ ।
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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