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द्वितीय अध्याय
आत्मा दुःख से बचना चाहता है पर दुःख के कारणों से नहीं बचता। अतः वह नहीं चाहते हुए भो पुनः उसी ओर जा पहुंचना है। दो वृत्तियाँ हैं एक है वान की दूसरी शेर की वान पत्थर मारनेवाले को नहीं, पत्थर को काटता है जब कि शेर गोली खाकर गोली पर नहीं, गोली मारनेवाले पर झपटता है। बस ये दोही वृत्तियाँ सर्वत्र काम कर रही है । एक अज्ञानी की वृत्ति है, वह दुःख के निमित्तों पर आक्रोश करता है, जब कि ज्ञानी दुःख के मूल पर प्रहार करता है । इसी तथ्य को द्वितीय अध्याय से वज्जिय पुत्र अतर्षि मार्मिक रूप में व्यक्त करते हैं :
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जस्स भीता पलायंति जीवा कम्माशुगामिणो ।
तमेचादाय गच्छति किया दिना व वाहिणी ॥ १ ॥ वजियपुत्तेण अरहता हसीण वुइयं ।
अर्थः- कर्मानुगामी आत्मा जिस दुःख से भीत होकर पलायन करता है किन्तु अज्ञान वश पुनः उसी ( दुःख ) को ग्रहण करते हैं। जैसे कि युद्ध से भगती हुई सेना पुनः शत्रु के घेरे में फंस जाती है बजिय पुत्र अर्हतार्षि ऐसा बोलेगुजराती भाषान्तरः
કર્મોનુગામી આત્મા જે દુ:ખશ્રી ખીને ભાગી જાય છે, પરંતુ અજ્ઞાનને વશ થયેલા તેને (દુઃખ ) યહુણ કરે છે. જે પ્રમાણે યુદ્ધથી ભાગતી સેના ફરીથી શત્રુના ઘેરામાં ફસાઈ ય છે. વજીય પુત્ર અર્ષિ આમ ખોલ્યા,
जन साधारण दुःख से बचना चाहता है किन्तु दुःख के कारणों का परिल्लाग नहीं करता । वह धूप से बचना चाहता है, किन्तु सूर्य का मोह भी उससे छूटता नहीं है। जब तक कारण उपस्थित है तब तक कार्य परंपरा चालू रहेगी। अनादि से भटका हुआ आत्मा कार्य नहीं, चाहता पर कारण छोड़ता नहीं है। परिणाम यह होता है कि घूम फिर कर वह पुनः दुःख के सामने ही पहुँच आता है। जैसे कि शत्रुद्वारा विदीर्ण सेना युद्ध से भाग खड़ी होती है। किन्तु कभी कभी ऐसा होता है। कि जिससे भागना चाहती उसी शत्रु सेना के चंगुल में पुनः फंस जाती हैं। तर्कशास्त्र में इसे कहा जाता है आयातं घटकुत्र्यां प्रभात: 1 एक व्यापारी द्रव्य अर्जित कर पुनः स्वदेश लौट रहा था। वह द्रव्य का कर चुकाना नहीं चाहता था । अतः उसने राजमार्ग छोड़ दिया और सारी रात इधर उधर घूमता रहा। प्रातः हुआ और घर की सीधी राह ली, किन्तु ज्योंही आगे बढ़ा वहीं नाका मिल गया। जिससे बचने के लिये सारी रात जंगल की खाक छानता रहा, प्रातः वहीं आ पहुंचा। ऐसे ही आत्मा जिस दुःख से बचने के लिये भागता हैं उसीके सम्मुख जा पहुँचता है ।
व वाहिणी सेना, तमेवाशय जीवाः
टीकाकार बोलते हैं: - बस्मात् पापकृत्यात् पापकर्मणो मीताः पलायते कर्मानुगामिनो भवन्तीत्यस्य लोकस्य द्वितीयचतुर्थपादयोरपरिहार्यो त्रिनिमयः ।"
जिस पाप कृत्य से भीत आत्मा पलायन करती है किन्तु छिन्न भिन्न सेना की भाँति उसी को ग्रहण करके आत्मा कर्मानुगामी होते हैं। इस चोक के दूसरे और चतुर्थ पाद का अपरिहार्य विनिमय है ।
दुःख और उसके कारणों की विस्तृत व्याख्या अर्हतार्षि दे रहे हैं :
दुक्खा परिवित्तसंति पाणा मरणा जन्मभया य सब्वसत्ता । तस्तोयस गवेसमाणा अप्पे आरंभ भीरुप ण सत्ते ॥ २ ॥
वे दुःख
अर्थः- प्राणी दुःख से परिश्रसित हैं। मौत और जिन्दगी के भय से समस्त आत्माएँ प्रकंपित हैं । उपशमन की खोज में हैं ( पर उसके कारण भूत) आरंभ से अल्प भी नहीं डरते ।
गुजराती भाषान्तरः
के
પ્રાણીમાત્ર દુઃખથી ત્રાસી ગયેલા છે, મોત અને જિન્દગીના ભયથી સમસ્ત આત્માઓ ત્રાસેલા (કાયમાન થયેલા ) છે. તે દુઃખના નિવારણની શોધમાં છે. હું પરંતુ તેના કારણભૂત ) આરંભથી જરાપણ ડરતા નથી.
प्रस्तुत गाथा में अतार्षि जीवन के महत्वपूर्ण सिद्धान्तों का प्रतिपादन कर रहे हैं वे हैं दुःख और उसके कारणों की खोज । समय आत्माएँ दुःख की उपशान्ति खोज रही हैं। अनंत युग बीते उसका लक्ष्य है अशान्ति से हटकर शान्तिकी