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इसि-भासियाई
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पिछले पा में मताया गया है कि साधक उपधानवान् होता है तो प्रश्न होता है, उपपान क्या है ? क्या अमुक प्रकार के विशेष फियाकांड उपधान है। या कोई विशिष्ट तर उपधान है। उनका उत्तर यहाँ दिया गया है। साधक सत्य की उपासना करता है। दत्त अर्थात् अन्यद्धारा दी गई वस्तु को ही प्रहण करता है और ब्रह्मचर्य की साधना करता है । सल्म में अहिंसा का समावेश है और ब्रह्मचर्य में अपरिग्रह अन्तर्भुत है। सत्य दत्त और ब्रह्मचर्य ही उपधान है। सत्य तो भगवान है। अस्तेय भी महान व्रत है और ब्रह्मचर्य तो श्रेष्ठतम तय है। सत्य का गाधक ही दत्त और ब्रह्मचर्य की उपसेवना कर सकता है। क्योंकि स्तेनवृत्ति और दाराना स्वयं असत्य है। महावतों का आराधक ही भवपरंपरा को समाप्त कर सकता है। इसी तथ्य को व्यक्त कर रहे हैं:
एवं से सिप बुद्धे विरते विपाये दंते दबद्ध अलं ।
ताई णो पुणरचि इश्चत्धे हटवमागच्छह ॥ ११ ॥ अर्थः-इस प्रकार वह साधक बुद्ध विरत निष्पाप दान्त--समर्थ त्यागी अथवा त्रामीरक्षक बनता है और वह पुनः इस लौकिक वृत्ति के लिये संसार में नहीं आता है। गुजराती भाषान्तर:
એ પ્રમાણે તે સાધક બુદ્ધ, વિરત, નિષ્પાત, દાન્ત, સમર્થ ત્યાગી અથવા ત્રાથી રક્ષક બને છે. અને તે ફરીથી આ સંસારમાં લૌકિક વૃત્તિ માટે આવતો નથી.
सय दत्त (अचौर्य ) और ब्रह्मचर्य का प्रती प्रबुद्ध है । भोगों से विरत होता है । निष्पाप और दमनशील होता है। शान्त दान्त साधकही आत्म रक्षा में समर्थ हो सकता है। वह मन परंपरा के चक्र में पुनः फेसता नहीं है।
टि. दविए का अर्थ द्रश्य अर्थात् साधक है। क्योंकि भावों का वही आश्रय है। हरुखः इस पार ( यह संसार ) आगम में पाठ "णो इन्वाए णो पारए" आता है जिसका अर्थ है न इस ओर न उस ओर । अलं-समर्थ । आगम में प्रश्न आता है केवली को "अलमत्यु" कह सकते हैं। वहाँ अलं शब्द समर्थ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
टीकाकार भी बोलते है:-एवं सखुद्धो चिरतो विगतपापो दान्तो दन्योऽलं ति समर्थस्स्यागी बायी वा म पुनरपि "इश्वत्थं" ति इत्यर्थ लौकिकवृत्यर्थ इथं ति बा अन भावित समागष्ठति समागमिष्यति अधीमीति सर्वेष्वप्यध्ययने मुक्तमालाप प्रथम एव लेखितमलमिति नारदाध्ययनम् ।
अर्थात् इस प्रकार वह बुद्ध विरत विमत पाप दान्त द्रव्य साधक अलं समर्थ खागी अथवा प्रायी रक्षक पुनः इस लौकिक पृत्ति के लिये अथवा इस संसार में नहीं आता है। इस प्रकार मैं (अतिर्षि नारद ) बोलता हूँ। यह आलायक समस्त अध्ययनों के अन्त में प्रयुक्त होता है । इसी लिये इसको सर्व प्रथम दिया गया है।
प्रोफेसर शुब्रिग इच्चत्थं के स्थान पर इत्थत्थं पाठ शुद्ध मानते हैं। दशकालिक अ. ५ उ. ४ गा. ७ में इत्यत्वं पाठ आता है।
इति प्रथम नारदाध्ययनम् ।।
१ तं मर्च भगवं-प्रश्न व्याकरण। २ तस वा उत्तम बंभचेरं-धीरस्तुत सत्रकृतरंग। चया सत्रसो। असिभाभियं जनन संरकरण ५. ५५२ ।
३ आइ मरणाओ मुच्चर स्वार्थ