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प्रथम अध्याय
अर्थ::- साधक सर्वथा मिरत दमनशील और पारे निर्ऋत ( शान्त ) है । अतः वह सर्वथा बाह्याभ्यन्तर संयोगों से विप्रमुक्त ( पृथक ) होकर समस्त अर्थों ( पदार्थों ) के प्रति सम ( विकारात्मक भावों से रहित ) होकर चले । गुजराती भाषान्तरः
સાધુ સર્વથા વિશ્વ અને દમનશીલ અને પરિનિવૃત-શાન્ત છે, માટે તે સર્વથા પ્રકારે બાહ્માભ્યન્તર સંયોગોનું ત્યાગ કરીને બધા અર્થો ( પદાર્થો) ને પ્રતિ સમ (વિકારાત્મક ભાવોથી રહિત થઈ ને ) વિચરે,
मोहबंधनों से ऊपर उठा साधक ही इन्द्रियों का दमन कर सकता है। इन्द्रियोंपर जिसका शासन है वही यथार्थ में शान्त है । उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये साधक बाह्याभ्यंतर उपाधियों से मुक्त हो पदार्थ मात्र के प्रति समभाव का साधक हो सकता है ।
दमन का अर्थ मारना नहीं; साधना है। घोड़े को राह पर चलाने के लिये उसे मारने की नहीं, साधने की आवश्यकता । इन्द्रियों को मारना क्या ? मरी तो वे अनंतवार हैं पर उन्हें साधा नहीं गया। अशुभ से मोह कर शुभ में ले जाना ही उनको साधना है। ऐसा साधक इच्छित और अनिच्छित सभी स्थितियों में सम रह सकता है। प्रशंसा के फूल उसके मन में गुदगुदी पैदा नहीं करते और निन्दा के शूल चुभन पैदा नहीं कर सकते ।
स सोयव्वमादाय अयं उवहाणवं ।
दुपही सिद्रे भवति णीरप ॥ ९॥
अर्थ :- समस्त श्रोतव्य को ग्रहण करके साधक प्रशंसनीय उपधानवान बनता है, पश्चात् समस्त दुःखों से मुक होकर निःरज हो ( कर्म रज से मुक्त हो ) सिद्ध होता है। गुजराती भाषान्तरः-
અધા શ્રોતવ્યોને ગ્રહણ કરીને તે સાધુ પ્રશંસનીય ઉપધાનવાન થાય છે. અને પછી તે બધાં દુઃખોથી મુક્ત થઈ ને નિતંજ કી રજથી રહિત થઈ નર : છે.
जो सुना उसे ग्रहण किया तभी साधक प्रशंसनीय तपस्वी कहलाता है। सुना उसे जीवन में न उतारा तो वह केवल भार होगा। भार में बडप्पन भले हो पर उसमें आनंद नहीं मिल सकता । बोझ चन्दन का हो या बबूल का वह मन को बाता है: आनंद नहीं दे सकता। "गधा चंदन का भारवाहक मात्र है। उसको सौरभ का आनंद उसके भाग्य में कहाँ ? ठीक वैसे चरित्र से हीन ज्ञानी भारवाहक मात्र है।" बात कटु है, पर सत्य अवश्य है। विचारक ने ठीक ही कहा है। दो व्यक्ति व्यर्थ ही श्रम करते हैं एक जो पैसा एकत्रित करता है, पर उसका उपयोग नहीं करता। दूसरा वह जो अध्ययन करता है, पर उसे जीवन में नहीं उतारता । जो सुना उसे ग्रहण करके ही साधक प्रशंसनीय उपधानवान होता सुक हो सिद्ध स्थिति को प्राप्त करता है।
| दुःख से
टि. उपधान एक तप है। "अडथं" को कोई 'अर्थ' मानते नहीं है। टीकाकार उसको भायें मानकर उसका अर्थ आत्मानं करते हैं।
| अयुत संख्या वाचक है । जो कि यहाँ अभिप्रेत
टीका:-- भाति आत्मान इति मन्यामहे. उपधानम् तपस् ततः सेवमान उपधानवान् भवति ।
अर्थात् आय का अर्थ आत्मा को इस प्रकार हम मानते हैं । उपधान एक तप हैं, उसके सेवनकर्ता उपधानवान् होते हैं। उपधान और उपधानवान् की व्याख्या करते हुए कहते हैं:
सचं वेत्रोपसेवंति दत्तं चैवोपसेवंति गंभं चेषोपसेवंति ।
सचं चेत्रोवधाणवं दत्तं चेवोवधाणत्रं बंभं चैवोवधाणवं ॥ १० ॥
अर्थः- साधक सत्य की उपासना करता है । दत्त का सेवन करता है, और ब्रह्मचर्य की उपासना करता है । सत्य ही उपधान है। दत्त ही उपधान है और ब्रह्मचर्य ही उपधान है।
१ अडयं ।
गुजराती भाषान्तरः
સાધક સત્યની ઉપાસના કરે છે. દત્તનું સેવન કરે છે અને બ્રહ્મચર્યની ઉપાસના કરે છે. સત્ય જ ઉપધાન છે. દત્ત જ ઉપધાન છે અને ભ્રહ્મચર્ય જ ઉપધાન છે.
२ जद्दा खसे चंदणभारवा ही भारस्सवाही हु चंदणस्स । एवं खु णाणी चरणेण हीणी भारस्स दादी ण सोमाईए ।